संवत 1324 विक्रम (1268 ई.) में कंवरराम चाहर व कानजी चाहर ने नसीरुद्दीन शाह के वारिस बादशाह गियासुद्दीन बलवन (1266 -1287) को पटाने के लिए पांच हजार चांदी के सिक्के एवं घोड़ी नजराने में दी।और बलबन पहले से ही जाटो पर खुश था क्योंकि जब देश पर क्रूर विदेशी मंगोलों ने आक्रमण किया था तो खाप सेना ने ही उसके साथ मिलकर मंगोलों को हराया था।
इसलिए बादशाह ने उनकी इच्छा अनुसार कांजण (बीकानेर के पास) और सिद्धमुख(चुरू) का राज्य दे दिया। 1266 -1287 ई तक गयासुदीन बलवन ने राज्य किया।(1268 से 1416 तक यहां जाट क्षत्रियो का राज रहा।)
बात उस समय की है जब वहां 1416 में राजा मालदेव चाहर शक्तिशाली स्तिथि में राज कर रहे थे।और इन्होंने अपना राज्य भी विस्तार कर लिया था।
वहां के आस पास दिल्ली के मुस्लिम बादशाह टैक्स लेते थे।और अपने कुछ लम्बरदार बना रखे थे।
तो 7 जाट लम्बरदारो ने टैक्स देने से मना कर दिया।
उस समय दिल्ली पर मुस्लिम शासक खिज्र खां का शासन था।उसने बाजखां पठान के नेतृत्व में एक सेना उन 7 लम्बरदारो को पकड़ने के लिए भेजी।जब बाजखां उन्हें गिरफ्तार करके ले जा रहा था तो राजा मालदेव ने उसे रोका।और उसे उन लम्बरदारो को छोड़ने के लिए कहा परन्तु उसने मना कर दिया।
फिर वहां भीषण युद्ध हुआ।और उस युद्ध में मुस्लिम सेनापति की सेना मारी गई।
इस घटना से यह कहावत प्रचलित है कि -
माला तुर्क पछाड़याँ दे दोख्याँ सर दोट ।
सात गोत के चौधरी, बसे चाहर की ओट ।
ये सात चौधरी सऊ, सहारण, गोदारा, बेनीवाल, पूनिया, सिहाग और कस्वां गोत्र के थे।और इन्होंने खिज्र खां को टैक्स के लिए मना करके वीरता का काम किया क्योंकि उस समय ऐसा करना मौत के मुह में हाथ डालने के समान था।क्योंकि दिल्ली पर क्रूर शासकों का कब्जा था।
गुस्से में लाल होकर स्वयं बादशाह खिज्रखां मुबारिक सैयद एक विशाल सेना लेकर राजा माल देव चाहर को सबक सिखाने आया। एक तरफ सिधमुख एवं कांजण की छोटी सेना थी तो दूसरी तरफ दिल्ली बादशाह की विशाल सेना।
मालदेव चाहर की अत्यंत रूपवती कन्या राजकुमारी सोमादेवी थी।
उसी समय दो सांड आपस में लड़ने लगे तो कुछ मुस्लिम सैनिक डरकर भागने लगे।
तब राजकुमारी सोमादेवी ने आपस में लड़ते सांडों को वह सींगों से पकड़कर अलग कर दिया था।ये देखकर बादशाह के एक खास सेनापति की बुरी नजर उस पर पड़ी और उसने संधि प्रस्ताव के रूप में युद्ध का हर्जाना और विजय के प्रतीक रूप में सोमादेवी का डोला माँगा।
स्वाभिमानी मालदेव ये सुनते ही गुस्से में हो गया और कहा कि हम अपनी कन्या एक मुसलमान को नही दे सकते।
महाराजा मालदेव ने धर्म-पथ पर बलिदान होना श्रेयष्कर समझा।
चाहरों एवं खिजरखां सैयद में युद्ध हुआ। इस युद्ध में सोमादेवी भी पुरुष वेश में घोड़े पर तलवार लेकर वीरता से लड़ी।सोमादेवी ने हजारों मुस्लिम सैनिकों को काट दिया।
परन्तु इतनी विशाल सेना के आगे कब तक टिकते अंत में अपने धर्म पथ पर चलते हुए युद्ध में दोनों पिता-पुत्री एवं लगभग सेना रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुई।
चाहर जाट गोत्र(एक नजर)
ऋषि-भृगु
वंश-अग्नि
कुलदेव-भगवान सोमनाथ
कुलदेवी-ज्वालामुखी
जय जटवाडा जय हिन्दुत्व जय भारत।
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