फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें।
![]() |
वीरवर गौकुल सिंह |
हिन्दू वीर शिरोमणि गौकुला की यह पूर्ण वीरगाथा पढ़कर आपकी रगों में रक्त का संचार तेज हो जाएगा-
जन्म और बचपन
वीर जाट सरदार ओला जो आगे चलकर इत्तिहास का सबसे महान यौद्धा वीर गौकुला कहलाया का जन्म सिनसिनी गांव में हुआ था। वीर मदु जाट/माडु जाट के सिंधुराज, ओला(गौकुल सिंह),झमन सिंह और समन सिंह चार पुत्र थे। जाति नियमन के अनुसार पैतृक सरदारी बड़े बेटे सिंधुराज ने सम्भाली। उस समय औरंगजेब के फौजदार मिर्जा राजा जयसिंह ने सिनसिनी गढ़ी पर आक्रमण किया। गद्दार जयसिंह की सेना औरंगजेब के सहयोग के कारण बड़ी थी। सरदार मदु और गौकुला के चाचा सिंघा ने वीरता से जयसिंह की सेना का मुकाबला किया।इस युद्ध मे वीर गौकुला के बड़े भाई सिंधुराज शहीद हो गए व मदु/माडु जाट को औरंगजेब के सामने पेश किया तो औरंगजेब ने उन्हें इस्लाम स्वीकारने के लिए बाध्य किया लेकिन उन्होंने औरंगजेब की आंख में आंख मिलाकर कहा कि सनातन उनकी रग रग में बसता था।
औरंगजेब इससे गुस्सा हो गया और उसने माडु जाट की जीते जी चमड़ी उतरवा दी।
इसी बीच उनके चाचा सिंघा गौकुला समेत तीनो भतीजों को लेकर सिनसिनी छोड़कर चले गए।उन्होंने ब्रज क्षेत्र के अन्य जाट सरदार नन्दराम ठेनुआ के पास पनाह ली।
गौकुल सिंह को बचपन मे ही धनुर्विद्या, तलवार चलना व अन्य हथियारों का उपयोग करना सिखाया गया।
उन्हें शुरू से ही धर्म व देशभक्ति की भावना भरने में उनके चाचा सिंघा ने अहम भूमिका निभाई।
गौकुल बहुत ही धर्मनिष्ठ, स्वाधीनता प्रेमी, सुयोग्य संगठक, सैन्य संचालक और व्यक्तिगत स्वार्थ की बजाय समाजिक एकता को समझने वाला महान व्यक्ति था।
उन्होंने युवा अवस्था मे ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन दिखाना शुरू कर दिया था।सरदार नन्दराम के साथ वे हमेशा तैयार खड़े रहते थे। वीरता, सम्प्रेषण कला और धर्म व देशभक्ति के कारण गौकुला की लोकप्रियता ब्रज क्षेत्र में बढ़ती जा रही थी।
फिर उन्होंने युवाओ को एकत्रित किया किसानों को खुद से जोड़ा व उन्हें लाठी, भाला, तलवार, धनुष बाण की शिक्षा दी। वे गांव गांव हिन्दुओ को एकत्रित करते हुए घूमे और औरंगजेब की धर्मान्धपूर्ण नीति के खिलाफ लोगो को जगाया व इस तरह हिन्दुओ को एकत्रित करके उन्होंने 20000 की सेना तैयार कर ली। उनका भाषण इतना तेजस्वी था कि हिन्दू माताओं ने अपने बेटों को गौकुला की धर्मवेदी के लिए समर्पित कर दिया।मध्यम वर्गीय सेठों ने धन से सहायता की।फिर उन्होंने तिलपत गांव में एक छोटे और मजबूत किले का निर्माण किया व अपना राज्य कायम किया।
आस पास क्षेत्र में भी छोटी छोटी गढ़ियाँ निर्माण करवाई व उन्हें मजबूत बनवाया।
अत्याचारी अब्दुन्नबी खां का वध
तिलपत में अपनी गढ़ी स्थापित करने व 20 हजारी सेना बनाने के बाद गौकुला ने हिंदुत्व विरोधी शाही फरमानों,धर्म परिवर्तन,जजिया कर, मुस्लिम जागीरदारों के अत्याचारों का विरोध करना शुरू कर दिया व बृज क्षेत्र में अराजकता फैल गयी।
दुष्ट अब्दुन्नबी खां का वध
औरंगजेब ने अब्दुनबी खां को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया।उसने अपनी नवीन छावनी बनाई।अब्दुन्नबी बहुत ही कट्टर इस्लामी अत्यचारक और किसान विरोधी था।
उसने शुरू में किसानों से लगान वसूलना शुरू कर दिया।
जाट किसानों व जमींदारों ने उसे टैक्स देने से मना कर दिया।फिर गौकुला ने तिलपत ग्रह को छोड़कर मथुरा महावन के क्षेत्र के अन्य किसानों को भी जागरूक किया।
इसके बाद सब हिन्दू किसानों ने लगान देने से मना कर दिया।सिंघोली,चावली आदि गांवों के नवयुवक हिन्दू किसान भी उनके साथ आ गए।
फलस्वरूप अप्रैल 1669 को अब्दुन्नबी खां आंदोलकारियों के प्रमुख गढ़ सूरह(सहोर) की और बढ़ा व कई गांवों को नष्ट कर दिया मंदिरों को तोड़ दिया और महिलाओं के साथ बदसलूकी करी।उसने कई गढियो को नष्ट कर दिया कई जाट वीर शहीद हुए।
लेकिन जैसे ही वह सूरहा गांव पहुँचा तो वह गांव को घेरने में तो सफल रहा लेकिन आक्रमण के समय 10 मई को एक भीषण युद्ध हुआ।गौकुला के नेतृत्व में जाट क्रांतिकारियों ने उसे गोलियों से उड़ा दिया।
मुगलिया दस्ते मैदान छोड़कर भाग निकले। जो भी गौकुला की सेना के हाथ लग उसको गौकुला के वीर सैनिको ने टुकड़े टुकड़े कर दिया।
सुरहा गांव के युद्ध मे विजय के बाद हिन्दुवीर गौकुला व उनकी सेना का उत्साह बढ़ गया।
फिर उन्होंने सादाबाद परगने पर आक्रमण कर दिया।
वहां पर मुस्लिम जागीरदारों की हवेलियों को लूटा और खुद को मजबूत किया।व हर मुगलिया शाही निशानी को आग के हवाले कर दिया।
शाही फौजदार व सिपाही उनके तांडव को रोकने में असफल रहे और भाग निकले।
आगरा के सीमांत गांव भी आन्दोलन में शामिल हो गए और वहां भी मुगलिया निशानियों को मिटा दिया गया मुस्लिम जागीरदारों को लूटा गया अग्निकांड की घटनाएं हुई।
इस तरह मुगल कर्मचारियों का आतंक उठ गया और सभी हिन्दू नागरिकों ने अपने हिन्दू मसीहा गौकुल सिंह का पूरा साथ दिया।
अब जिन फ़ौजदारों जागीरदारों के आगे कभी जनता चूँ भी नहीं करती थी उन्हैं जगह जगह पीटा जाने लगा।
गौकुला के इस कार्य ने हिन्दुओ में क्रांति की भावना भर दी।
फौजदार अब्दुन्नबी खान वही व्यक्ति था जिसने औरंगजेब के आदेश पर मंदिरों को तोड़कर मथुरा में जामा मस्जिद बनवाई थी।इसी दुष्ट को इसके कृत्य की सजा वीर गौकुला ने दी थी व उसका वध किया था।
यह मस्जिद आज भी मौजूद है।
केशव जी का मन्दिर भी इसने तोड़ने का प्रयास किया लेकिन जाटों ने नहीं तोड़ने दिया।
बाद में दुष्ट औरंगजेब ने गौकुला के बलिदान के बाद मथुरा का केशवजी मन्दिर को ढहाया था। व केशव जी मन्दिर की जगह भी एक विशाल मस्जिद बनवाई थी जो आज भी विद्यमान है।
औरंगजेब की क्रान्तिकातियो को दबाने की असफल कोशिश और सन्धि के रूप में लालच देने की कोशिश
दुष्ट अब्दुन्नबी खां के वध के बाद पूरे ब्रज क्षेत्र में हिन्दुओ ने बगावत कर दी थी। गौकुला एक तरह से अघोषित राजा बन गया था।वह बिना किसी राजा महाराजा के सहारे औरंगजेब की क्रूर सरकार को चुनौती दे रहा था।उसकी लोकप्रियता दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी हिन्दुओ में मुस्लिम कर्मचारियों और फ़ौजदारों का भय खत्म हो रहा था।
इसलिए ब्रहस्पतिवार 13 मई को औरंगजेब ने आगरा सरकार के सीमावर्ती क्रांतिकारियों को दबाने के लिए रादअंदाज खां को रवाना किया मथुरा का फौजदार सैफशिखन खां को नियुक्त किया। व सैफशिखन की सहायता के लिए गद्दार राजपूत सरदार वीरमदेव(ब्रह्मदेव) सिसौदिया को भेजा।
आंदोलनकारियों और सैफशिखन के बीच कई बार झड़प हुई युद्ध हुए लेकिन सैफशिखन व वीरमदेव सिसौदिया को क्रांति दबाने में कामयाबी नहीं मिली।
क्रांति की लहर माह दर माह बढ़ती चली गयी।पूरे उत्तर भारत मे गौकुला का आतंक छा गया मुगलिया कर्मचारी खौफ में जीने लगे और औरंगजेब के शासन की चूलें हिलने लगी।
सैफशिखन की विफलता देखकर 4 महीने बाद औरंगजेब ने गौकुला को एक सन्धि प्रस्ताव भेजा व लालच दिया कि
-अगर गौकुला आन्दोलन बन्द कर दे और क्रांति को दबा दे तो
उसे एक जागीर दे दी जाएगी।
उसके सारे गुनाह माफ कर दिए जाएंगे।
और दरबार मे बहुत इज्जत दी जाएगी।
सोने चांदी के सिक्के उपहार स्वरूप दिए जाएंगे।
लेकिन गौकुला ने कहा कि मैं धर्म पथ पर चल रहा हूँ।
और जो धर्म के रास्ते से हट जाए वो असली यौद्धा नहीं होता। और तंज कसते हुए कहा कि अगर हिन्दुओ की इतनी ही चिंता है तो अपनी बेटी ब्याह दे।
इस तरह गौकुला ने बिना लालच किये अपनी क्रांति को जारी रखा।औरंगजेब उसकी देशभक्ति देखकर हैरान था।
आखिर औरंगजेब को खुद ही मैदान में आना पड़ा
हालात बिगड़ते देख 27 नवम्बर 1669 को औरंगजेब खुद मथुरा पहुंच गया। उसने पूरी सेना वीर गौकुला की क्रांति को दबाने के लिए लगा दी।
वह स्वयं मथुरा की छावनी में रुककर अपनी सेना को निर्देश देने लगा।
उसने अपनी कुछ सैनिक टुकड़ियों को आगरा की और रवाना किया। व स्वयं छावनी में रुककर गौकुला के विरुद्ध अपने फौजी सेनापतियों का संचालन किया।
शनिवार 4 दिसम्बर को क्रूर हसन अली खां को कमान देकर सादाबाद और मुरसान की जाट गढियों की ओर रवाना किया।
इसी दिन सुबह साम्राज्यवादी सेनाओं ने रेवड़ा, चन्दरख और सरखरू गढियो पर आक्रमण कर दिया।
मुगलिया तोपची, बंदूकची तथा तीरंदाजों ने इन गढियो को घेर लिया।
क्रांतिकारियों ने दोपहर तक शत्रु का वीरता, साहस तथा अदम्य वीरता के साथ जमकर मुकाबला किया।
अच्चानक घेराबंदी के कारण वे अपने परिवार को गढियो से बाहर नहीं भेज सके।
अतः अपनी स्त्रियों को जौहर की ज्वाला में विदा करके अथवा तलवार के घाट उतारकर सिंह की भांति साम्राज्यवादी सेना पर टूट पड़े।
अनुपम शौर्य तथा कुशलता के साथ मैदान में जमकर वीरता का परिचय दिया। रणभूमि रक्त से लाल हो चुकी थी। चारों तरफ लाशें ही लाशें व तलवारों बन्दूक तोपों की आवाज गूंज रही थी।
यद्यपि क्रांतिकारियों ने शाही सेना को चीर दिया था।लेकिन बन्दूको व तोपों की करारी मार के कारण वे हसन अली खां को हराने में सफल नहीं हो सके।
इन आक्रमणों में मुगल सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी।
इस युद्ध मे 300 हिन्दू वीर शहीद हुए।
इन गढियो पर औरंगजेब का अधिकार हो गया।
औरंगजेब ने सब हिन्दुओ की सम्पति लूट ली व मवेशियों को भी खोलकर अपने फ़ौजदारों मे बांट दिया।
लगभग 250 लोगों को बंदी बना लिया।
इसके बाद इस सम्राज्यवादी सेना ने मथुरा,महावन और सादाबाद परगनों को बुरी तरह से घेर लिया।
तिलपत का युद्ध
औरंगजेब के साथ सीधा युद्ध
सादाबाद और मुरसान की गढ़ियाँ नष्ट होने के बाद गौकुला ने अपनी मुख्य गढ़ी तिलपत की और प्रस्थान किया और तिलपत में युद्ध की घोषणा कर दी।
उनके पीछे पीछे औरंगजेब और हसन अली खां भी अपनी विशाल साम्राज्यवादी सेना के साथ वहां पहुंच गए।
मुगल तोपखाना,बंदूकधारी,घुड़सवार,पैदल सिपाही सब कुछ औरंगजेब ने गौकुला को घेरने के लिए लगा दिया।
गौकुला और उनके ताऊ उदयसिंह सिंघी की कमान में इस समय 20000 जाट सैनिको के साथ तिलपत से 20 मील दूर घने जंगलों में बड़ी चालाकी से पेड़ों व झाड़ियों की आड़ लेकर औरंगजेब की मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया।दोनों दलों की भयंकर मुठभेड़ हुई।
यहां क्रांतिकारियों ने कई दिनों तक मुगल सेना का वीरता से सामना किया। किंतु औरंगजेब की सेना के आग्नेय अस्त्रों ने उनके पैर उखाड़ दिए।
फिर एक रात्रि उन्होंने जंगलों से अपना घेरा उठा लिया व तिलपत गढ़ी में पहुंचकर युद्ध की तैयारियां शुरू कर दी।
अब साम्राज्यवादी सेना ने तिलपत को घेर लिया।औरंगजेब ने गौकुला की वीरता सैन्य दक्षता और संचालन से परेशान होकर खुद मैदान में आना ठीक समझा।वह खुद अब संचालन की बजाय युद्ध के मैदान में खड़ा हो गया।उसने पूरी ताकत तिलपत में लगा दी।
एक भयंकर युद्ध शुरू हो गया।लाशों के ढेर लग गए।
औरंगजेब बौखला गया। रात्रि को युद्ध थोड़ा शांत होने पर उसने अपनी सेना को तैयार किया व इस बार उसने बंदूक, तोप, किरच, बाण आदि सबसे एक साथ हमला कर दिया।
अल्हड़ जाट क्षत्रियों ने अपनी वीरता दिखलाई। स्त्रियां भी इसमे पूर्णतः शामिल थी वे अपने पतियों व बेटों को बंदूकें लोड करके दे रही थी।व हर तरह से उनका सहयोग कर रही थी।
औरंगजेब की सेना के पीछे से तोप आग फेंकने लगी।
लेकिन हिन्दू वीरों ने मैदान नहीं छोड़ा। उन पर तो जैसे धर्म व देश की भक्ति में बलिदान होने की धुन सवार थी।
अंत मे उन्होंने धोखे से पीछे से वार किया किले की सुरक्षा कर रही पंक्ति कमजोर पड़ गयी और औरंगजेब की सेना को किले में घुसने का रास्ता मिल गया।
यह देखकर सबको पता लग गया था कि अब युद्ध भगवान भरोसे है तो मांओ ने अपनी बेटियों का कत्ल कर दिया व उन महिलाओं को उनके पतियों ने खंजर व बंदूक से शहीद कर दिया ताकि वे जिंदा क्रूर मुगल सैनिकों के हाथ न लग जाएं।इस तरह जौहर करके महिलाओं ने अपना स्वाभिमान व इज्जत बचाई।
इसके बाद औरंगजेब की बन्दूको ने किले के अंदर कहर ढाना शुरू कर दिया।लगभग 4000 वीर इस किले में शहीद हो गए।मुगल सेना के फ़ौजदारों समेत 5000 सिपाही चीर दिए गए।
गौकुला व उनके साथियों को औरंगजेब ने बंदी बना लिया।
लगभग 7000 घायल लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
किले में तीन गाड़ी हथियार और अन्य युद्ध का अन्य सामान मुगल सैनिको के हाथ लगा।वह सब औरंगजेब ने लूट लिया।
यह युद्ध भारत के इत्तिहास का सबसे रक्त रंजित युद्ध माना जाता है।यह 5 दिन से भी ज्यादा लगातार चलता रहा।तिलपत में मुख्य युद्ध तीन दिन तक चला था।
एक छोटे से किसान के बेटे ने मुगल सत्ता की जड़ें हिला दी।
और धर्म रक्षा के लिए इतनी प्रबलता से लड़ा कि जो औरंगजेब बड़े बड़े राजा महाराजाओं से लड़ने नहीं जाता था वह इस धर्म वीर गौकुल सिंह से लड़ने पहुंचा।
न ही गौकुला को वह लालच में बांध सका और न ही उसे डरा सका।
और हार व मौत के डर से हिन्दू वीर गौकुला ने व वीर हिन्दू सैनिकों ने रणभूमि त्यागी।
यह गौकुला न तो कोई महाराजा था न ही राजा का बेटा न ही इसमे राजा बनने की कोई लालसा थी।
वह लड़ा तो देश की आजादी के लिए विदेशी सत्ता से, अधर्मी से धर्म की रक्षा के लिए, किसानों के हक के लिए महिलाओं की रक्षा के लिए, मंदिरों की सुरक्षा के लिए, भगवे की शान के लिए।
इत्तिहास में कोई उस जैसा दूसरा महान यौद्धा नहीं हुआ जो बिना राज, स्वार्थ और बिना किसी राजा महाराजा की सहायता के धर्म व देश की रक्षा के लिए मुगल सत्ता से लड़ा हो।
फिर औरंगजेब ने मथुरा से अपनी छावनी उठा ली और आगरा की तरफ रवाना हुआ। गौकुला व अन्य मुख्य बंदियों को भी आगरा पहुंचाया गया।
वीरवर गौकुल सिंह का बलिदान
शुक्रवार,31 दिसम्बर 1669 का दिन था।
क्रूर औरंगजेब का दरबार खचाखच भर हुआ था।हर तरफ कानाफूसी चल रही थी।जनता संसय में खड़ी थी व सबके चेहरे पर कुछ सवाल व परेशानी थी।
तभी औरंगजेब ने अपने कर्मचारियों की तरफ इशारा किया।
कुछ समय बाद लोहे की बेड़ियों में जकड़े हुए वीर गौकुला, व उनके चाचा(ताऊ) उदय सिंह सिंघी व कुछ अन्य बंदियों को पेश किया गया।
सबकी सिर शान से उठा हुआ था।सब वीर निडर व प्रसन्न औरंगजेब के सामने आंखों में आंखे डाले हुए खड़े थे।
औरंगजेब उनकी इस निडरता को देखकर मन ही मन जल रहा था।
उसने उन वीरों के सामने प्रस्ताव रखा कि वे इस्लाम स्वीकार कर ले व उनकी अधीनता स्वीकार लें तो उनकी गुस्ताखी माफ की जा सकती है और वे मौत की सजा से बच सकते हैं।
तब गौकुला ने औरंगजेब की आंखों में आंखे डालकर तेजस्वी आवाज में कहा कि अ औरंगजेब जो तू कर रहा है यही इस्लाम है तो इस्लाम कोई धर्म नहीं है और रही बात हिन्दू धर्म छोड़ने की तो बता दें हिन्दू धर्म हमारी आस्था है और हमारी आस्था हमारे रोम रोम व रग रग में बसी हुई है।
और अधीनता स्वीकारना तो हमारे रक्त में ही नहीं है।
भरे दरबार मे जय वीर गौकुला के नारे लगने लगे।
औरंगजेब झल्ला उठा लोग शांत हो गए।जनता के सामने इस तरह के जवाब को दुष्ट औरंगजेब अपनी बेज्जती समझा और उसने इन वीरों को कड़ी से कड़ी सजा देने का फैसला किया।
उसने वीर गौकुला व उनके चाचा उदय सिंह सिंघी को छोटे छोटे टुकड़ों में काटने का आदेश दे दिया।
अगले दिन शनिवार 1 जनवरी 1670 को उसके सैनिको ने दोनों वीरों को आगरा की कोतवाली के सामने एक ऊंचे चबूतरे पर जंजीरों से बांध दिया।
औरंगजेब के निर्दयी जल्लादों ने दोनों वीरों को धीरे धीरे काटा व उनका अंग अंग बारी बारी शरीर से अलग किया।
लेकिन वीरों ने उफ्फ तक न कि उनके मुख से एक बार भी माफी की भीख न निकली। बल्कि वे तो प्रसन्न व गर्व महसूस कर रहे थे कि वे अपने देश व धर्म के लिए शहीद हो रहे हैं।
जो भी इस दृश्य को देख रहा था उसके मुख से एक ही शब्द निकल रहा था है राम!
सबकी ह्रदय में करुणा व नेत्रों में आंसू छलक रहे थे।
और धर्म की वेदी पर न्यौछावर होने वाले वीरों के ह्रदय में उमंग,निश्छलता तथा प्रसन्नता थी।
इस तरह दोनों वीर धर्म के लिए शहीद हो गये।उस चौक को गौकुला के शरीर से रक्त के फव्वारे निकलने के कारण फव्वारा चौक कहा जाता है।
लेकिन कितने शर्म की बात है कि आज हिन्दू वीर गौकुला को बिल्कुल भूल चुके हैं। उनकी उस फव्वारा चौक पर तो दूर पूरे देश मे एक भी मूर्ति नहीं है। न उनके नाम को किसी स्कूली किताब में जगह मिली है।
और सबसे शर्म की बात तो यह है कि उस दिन हिन्दू इस महान शहादत को भूलकर ईसा मसीह का जन्मदिवस का प्रतीक नया साल मनाता है जिससे भारत या हिंदुत्व से कोई लेना देना नहीं है।
जय वीर गौकुला।जय सनातन।जय भारत।
No comments:
Post a Comment