Saturday 14 December 2019

जीवन परिचय- हिंदुआ सूरज महाराजा सूरजमल

हिंदुआ सूरज महाराजा सूरजमल जी का जीवन परिचय
Biography of maharaja surajmal
महाराजा सूरजमल

नाम:- महाराजा सूरजमल सिंह
बचपन का नाम:- सुजान सिंह
जन्म:- 13 फरवरी 1707
मृत्यु:- 25 दिसम्बर 1763

पुरा नाम:- श्री महाराज विराजमान बृजेन्द्र महाराज सूजान सिंह जी बहादुर
अन्य नाम:- भूपाल पालक भूमिपति बदनेश नँद सुजान, सिंह सूरज कुमार, सिंह सूरज सुजान, रविमल्ल आदि

पिताश्री का नाम:- राजा बदन सिंह
पितामह का नाम:- श्री भाव सिंह सिनसिनिवार(सिनसिनी के राव चूड़ामन जी के भ्राता)
माता का नाम:- रानी देवकी जी
नानाश्री का नाम:-कॉमर के चौधरी अखेराम सिंह
प्रमुख शिक्षक- आचार्य सोमनाथ जी

कद- 7 फुट 2 इंच
वजन- लगभग 150 किलोग्राम
शरीर की बनावट- सुडौल, मजबूत, गठीली,शाही तेवर वाली मोटी आंखे, चौड़ा ललाट, लम्बी रौबदार मूंछे,लंबे तगड़े और वजनदार आवाज दबंग छवि,सुंदर नैन नक्श।

राज्य:- जटवाड़ा
राजधानी:- भरतपुर(लोहागढ़), डीग(सर्दी के मौसम में)
ध्वज- महल पर पीताम्बर ध्वज, किले पर भगवा कपिध्वज, युद्ध में भगवा और केसरिया ध्वज।
कुलदेवता- श्रीकृष्ण भगवान
कुलदेवी- राज राजेश्वरी कैला देवी
वंश प्रवर्तक- शूरसेन(सिनसिना) बाबा

पत्नी:- महारानी किशोरी बाई,महारानी खेतकौर, महारानी गंगिया, रानी हंसिया, रानी गौरी, रानी कल्याणी आदि
पुत्र:- जवाहर सिंह, रत्नसिंह, नाहर सिंह, रणजीत सिंह, नवल सिंह
भ्राता- महाराजा सूरजमल जी के 25 अन्य भ्राता थे जिनमें से वैर राजा प्रताप सिंह उनके सहोदर(अर्थात रानी देवकी से ही) भ्राता थे।

उपाधि:- कुंवर ब्रजराज बृजेन्द्र बहादुर भूमिपति भूपाल
युवराज:-1748
शासनकाल:-1755-1763
शासन अवधि:- 8 वर्ष, वैसे कुंवर पद ग्रहण करते ही उन्होंने राज्य सम्भालना शुरू कर दिया था। 1748 में सूरजमल युवराज बनाये गए तब तो बदन सिंह नाम मात्र के ही राजा थे उन्होंने सब कार्य उन्हें सम्भलवा दिया था क्योंकि उनकी आंखों में समस्या हो गयी थी लेकिन जाटो में पिता के जीवित रहते बेटा चौधर ग्रहण नहीं करता इसलिए मोहर उनके नाम की चलती थी। इसलिए उनके शासन को 1748 से गणना की जाए तो 15 वर्ष होता है।

पूर्वाधिकारी:- राजा बदन सिंह
उत्तराधिकारी:- महाराजा जवाहर सिंह
राजघराना:- जाट राजवंश
वंश:- कृष्ण वंशी शुरसेनिवार/वृष्णि(सिनसिनिवार)

प्रमुख युद्ध=

दस वर्ष की आयु में ही महाराजा सूरजमल जी ने सेना व दरबार के कार्यो में हाथ बंटाना शुरू कर दिया था।
उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग 80 युद्धों में भाग लिया जिनमें वे कभी भी नहीं हारे। इसी कारण उन्हें अजेय महायौद्धा कहा जाता है। उनके कुछ प्रमुख युद्ध इस प्रकार है-

★1726 में उन्होंने सोगर गढ़ी पर अधिकार किया
★1730 में मेण्डु पर अधिकार किया।

★उन्होंने 1731 में छोटी सी उम्र में #मेवात_पर_अधिकार कर  लिया था।

★टप्पा डाहरा युद्ध में मिर्जा दावर जंग ने उनकी तलवार के आगे आत्म समर्पण कर दिया था।
★उनकी तलवार ने खोहरी में भी दुश्मनों पर विजय प्राप्त कर ली थी
*1738 में मथुरा आगरा के फरह, ओल अछनेरा व कुछ अन्य क्षेत्रों को आजाद करवाया।

★फरीदाबाद में #मूर्तिजा_खां_को_हराया।

★1739 में नादिरशाह के विरुद्ध दिल्ली की सहायता की और नागरिकों को शरण देकर उनकी सुरक्षा भी की।

★1740,41,44 में गंगवाना युद्ध में, जोधपुर व कोटा के विरुद्ध आदि कई बार जयपुर राज्य की मदद की।

★1745 में अली मुहम्मद रुहेले को हराया।
★1745/46 में उन्होने दिल्ली नवाब के सेनानायक अफगानी नवाब #असद_खां_को_धूल_चटाई थी।#असद_खां युद्ध में #मारा गया था।

★1748 में उन्होंने #जयपुर के राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में लड़ाई लड़ी और उनकी विरोधी #7_सेनाओं_को_एक_साथ बुरी तरह से #हरा_दिया था व ईश्वरी सिंह राजपूत को जयपुर का ताज दिलाया था।

★1749 में #दिल्ली_के_वजीर_सफदरजंग को हराया। वजीर उनके #खौफ से लड़ने ही न पहुंचा था।

★1750 में मीर बक्शी #सलावत_खां_को_हराया और दुष्ट #हाकिम_खा_मार_डाला।

★1750 में वजीर #सफदरजंग को #फिर से मैदान में #हराया।

★1750 में #रुस्तम_खां_मार_गिराया और #अहमद_खां_बंगश को धूल चटाई।

★1751 में #बहादुर_खां_मार_गिराया।

★1752 में नवाब #जावेद_खां_को_धूल_चटाई

★1752 में #फकीर_अली व #मुगलो_खदेड़कर सिकंदराबाद व दनकौर पर शाही अधिकार खत्म कर दिया।

★1753 में ही पलवल में #इमाद_को_हराकर वहां काजी को भी पकड़ लिया था।

★1753 में घासेड़ा के बहादुर सिंह पर विजय- बहादुर सिंह घासेड़ा का जागीरदार था जो बार बार महाराजा सूरजमल के विरुद्ध अभियानों में हिस्सा लेता था। महाराज के बार बार समझाने पर भी नहीं मानने पर व सीमा में घुसपैठ करने पर महाराज ने उस पर आक्रमण की ठानी। इसी बीच जब वे दिल्ली पर आक्रमण करने जा रहे थे उसी समय बहादुर सिंह के कुछ लोगो ने महाराजा सूरजमल जी के राज्य में लूटपाट की व ऊंट चुरा लिए। महाराज ने बहादुर सिंह को कार्यवाही करने व ऊंट लौटाने को कहा। न मानने पर उन्होंने आक्रमण कर दिया। बहादुर सिंह हार की कगार पर था। युद्ध के बीच में भी सन्धि की कोशिश महाराज द्वारा की गई सन्धि हुई लेकिन कुछ ही देर में बहादुर सिंह का मन पलट गया और उसने अपनी दोनो पत्नियों को जौहर करवा दिया व बाहर निकलकर महाराजा सूरजमल की सेना पर टूट पड़ा। जिसमें उसकी हार हुई व वह युद्ध में मारा गया। इस तरह घासेड़ा पर उन्होंने विजय प्राप्त की।

★1753 में उन्होंने दिल्ली के वजीर सफदरजंग को उकसाकर उसके साथ मिलकर #दिल्ली_पर_आक्रमण कर लिया था व दिल्ली का एक बड़ा क्षेत्र अपने कब्जे में कर लिया था। और मुगल बादशाह बार पत्र लिखकर गिड़गिड़ा रहा था रहम की भीख मांग रहा था। अंत में सफदरजंग की निष्क्रियता व जयपुर के राजा के बीच में आने के कारण उन्हें सन्धि करनी पड़ी।सन्धि उन्ही की शर्तों पर हुई।

★1754 में कुम्हेर में मराठा एवं मुगल सेना ने कुम्हेर पर आक्रमण कर दिया था। इस युद्ध में खांडेराव होलकर मारा गया। बाद में सन्धि हो गयी थी।महाराज ने खांडेराव की छतरी बनवाई भले ही वे उनके साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए हो।

★1757 में उन्होंने मथुरा वृन्दावन व भरतपुर में से #अब्दाली को अकेले ही निकाल फेंका था।अबदाली से बल्लभगढ़, भरतपुर,कुम्हेर, चौमुंहा, गौकुल में एक साथ युद्ध लड़ा धर्मनगरी की अकेले ही रक्षा की। अबदाली ने बहुत नरसंहार किया और उन्होंने उसका निडर होकर सामना किया।हजारों जाटो ने धर्मनगरी की रक्षा हेतु बलिदान दिया। अंत में अब्दाली कुम्हेर के किले पर घेरा डालकर बहुत दिन बैठा रहा और लोहागढ़ की तरफ बढ़ने की उसकी हिम्मत न हुई। अंत में सूरजमल का रणनीतिक व धमकी भरा पत्र पढ़कर वह समझ गया कि ये शासक उससे रत्ती भर भी न डरने वाला और जाटो की तलवारों की नोको से डरकर वह वापिस लौट गया था।

★ 1757 में फरुखनगर के नवाब अफगानी #मूसा_खान को हराया।

★ उन्होंने मुगलो व अफगानों बलूचों से रोहतक झज्जर गुड़गांव पलबल फरीदाबाद रेवाड़ी आदि हरियाणा के बहुत से क्षेत्र जीत लिए थे, उत्तर प्रदेश में पूरा ब्रिज क्षेत्र और वेस्ट यूपी, राजस्थान में भरतपुर धोलपुर अलवर आदि,अलीगढ़,एटा, मेनपुरी,आगरा, मेरठ,मुजफरनगर,मथुरा आदि। दिल्ली में पालम व गाजियाबाद तक उनका राज हो गया था। मुगल कुछ ही हिस्से में सिमट गई थे जिसके कारण मुगलो की लोग खिल्ली उड़ाने लग गए थे। मुगलो को कमजोर करने व उनका शासन अंत करके भारत को आजाद करवाने में उनका मुख्य योगदान रहा है। अगर ये कहें कि मुगलो का खौफ भारत से मिटाने वाले महाराजा सूरजमल जी थे तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नही होगी।

★1761 में जब अब्दाली को मराठो से लड़ने के लिए बुलाया गया तब मराठो का किसी भी हिन्दू राजा ने साथ न दिया केवल महाराजा सूरजमल ने साथ दिया जिस कारण पेशवा ने उन्हें हिंदुस्तान का एकमात्र मर्द मानस कहा था।जबकि 1757 में यही अबदाली जब मथुरा वृन्दावन लूट रहा था तो महाराजा सूरजमल इससे अकेले लड़े थे मराठे भी उनका साथ देने नही आए थे। फिर भी वे सब भूलकर उनके साथ आये। उन्होंने मराठो का दिल्ली विजय तक साथ दिया और 1 महीने तक का पूरा खर्च अपने खजाने से दिया। दिल्ली विजय तक उन्होंने मराठो का तन मन धन से हर युद्ध में साथ दिया।
बाद में भाउ से उनके रणनीतिक मतभेद हो गए।
★उन्होंने कहा कि
ठंड में आप लड़ न पाओगे और अब्दाली ठंड में लड़ने का आदि है इसलिएहम गुरिल्ला युद्ध करे और उसे पंजाब के दूसरी तरफ ही उलझाकर रखें थोड़े दिन में मौसम बदल जायेगा अब्दाली से गर्मी सहन न होगी मौसम हमारे पक्ष में होगा।
औरतों व भारी सामान को साथ न रखें वरना आधी फौज उनकी सुरक्षा में लगेगी और लड़ने वाले निश्चिंत होकर न लड़ पाएंगे। इसलिये उन्हें ग्वालियर भेज दें या मेरे किसी किले में रखे उनकी सुरक्षा व उनका खर्च मैं वहन करूँगा।
दिल्ली मुझे दें व गाजीउद्दीन को वजीर बनाएं जिससे मुस्लिमो का भावनात्मक साथ मिल सके व अबदाली कमजोर हो।और रसद न रुके।
मुगल दरबार की छत को लालच में मत तोड़ें इससे लोगो की भावनाएं जुड़ी है अब्दाली इसे इस्लाम से जोड़कर यहां के मुस्लिमो को साथ ले जाएगा।जब न माना गया तो यह तक कहा कि इसे न तोड़ने के बदले मेरे खजाने से 5 लाख रुपये मैं दे दूंगा।
जब जब उन्होंने ये सब सुझाव दिए तो उनके इनमें से किसी भी सुझाव को न माना गया और भाउ से उनके आपसी मतभेद हुए। आपस में हर बार गरमा गर्मी वाली बहस हो गयी। भाउ ने उनका शाब्दिक रूप से अपमान भी किया व कहा कि तुम्हारे सहारे उत्तर में न आया मेरी मर्जी होगी वह करूँगा।
इस तरह की बार बार बहस होने से भाउ चिढ़ गए जबकि के सब सुझाव मराठो के हित में ही थे और उन्होंने उन्हें #बन्दी_बनाने_की_गुप्त_योजना बना ली। होलकर व सिंधिया ने यह बन्दी बनाने बात महाराज को बता दी व उन्हें आगामी झगड़ा न हो इसलिए वापिस लौटने का आग्रह किया। तब महाराजा सूरजमल जी को मजबूरन वापिस लौटना पड़ा।बता दे कि उन्होंने साथ छोड़ा नहीं था बल्कि उन्हें मजबूरन जाना पड़ा था।

★मराठो को #शरण व उनकी सहायता- युद्ध के पश्चात उन्होने भाउ की पत्नी पार्वतीबाई और व उनके परिवार और हजारों मराठा सैनिकों को घायल व भूख की अवस्था में शरण दी और उनकी सेवा की, उनका इलाज करवाया, खाना, रहना और कपड़े सबका प्रबंध किया। उस समय लगभग 10 लाख रुपये खर्च किये। और मराठो को सुरक्षित महाराष्ट्र तक पहुंचाया। मराठो को छोड़ने गए कुछ जाट सैनिक वहीं रह गए थे उनके वंशजो के आज भी महाराष्ट्र के नासिक में उन जाट सैनिकों 22 गांव मौजूद हैं। मराठो ने इस अहसान के कारण जाटो को सच्चा यार कहा था व महारानी किशोरी देवी को अपनी बहन माना था। क्योंकि इतने मतभेद के बाद व भाउ के द्वारा #बन्दी बनाने के षड्यंत्र के बाद भी उन्होंने मन में मैल न रखा और उनकी मदद की।

★1761 में आगरा में मुगल सेनापति काजील खां को हराकर वहां के लाल किले पर कब्जा जमाया। मुगल फौजदार उनके आक्रमण से पहले ही उनसे डरकर भाग गया था और ताजमहल की कब्रो पर घोड़े बांध दिए थे।
★ फरुखनगर के मसावी खां बलूच को हराया और उसे कैद करके जेल में डाल दिया।
★1763 में एक बार फिर उन्होंने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया था व एक ब्राह्मण कन्या की रक्षा की थी।24 दिसम्बर तक उन्होने दिल्ली जीत ली थी। ज्यादातर हिस्सो पर उनका कब्जा था बस कुछ युद्ध ही शेष था।

★25 दिसम्बर 1763 के युद्ध के दौरान वे अपने पुत्र नाहर सिंह को कमान देकर अकेले ही हिंडौन नदी पर घूमने निकल गए थे तो पीछे से कुछ मुगल सैनिकों ने झाड़ियों से उन पर गोलियों की बौछार कर दी थी। फिर भी वे घायल अवस्था में अकेले ही उनसे वीरता से लड़े और एक लंबे संघर्ष के पश्चात वीरगति की प्राप्त हुए थे।

●निर्माण कला:- महाराजा सूरजमल भवज निर्माण कला के बहुत बड़े ज्ञाता एवं जानकार थे। उन्होंने डीग, भरतपुर, कुम्हेर आदि समेत ब्रिज में कई भव्य किलों का निर्माण किया। भरतपुर के लोहागढ़ किला तो ऐसी सामरिक बनावट में बना के उसे कभी कोई नहीं जीत सका। उन्होंने अनेकों महल बनवाएं जिनमें डीग के जलमहल, भरतपुर के महल प्रसिद्ध है।
उन्होंने गोवर्धन में भव्य सरोवर व मन्दिर बनवाये, मथुरा वृन्दावन,नन्दगाँव आदि में उन्होंने अनेको मन्दिर बनवाएं व अनेको मन्दिरो का जीर्णोद्धार किया। अब्दाली व मिगलो द्वारा तोड़े गए सभी मन्दिर व घाट फिर से बनवाएं। मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि मन्दिर भी आधी मस्जिद तोड़कर उन्होंने बनवाया था।
बयाना की उषा मस्जिद हटाकर फिर से उसे उषा मन्दिर बनाया था। गुरुग्राम का शीतला माता मंदिर भी उन्होंने बनवाया था।दिल्ली में पहाड़ी धीरज पर शिव मंदिर बनवाया था।मथुरा के ज्यादातर घाटों की सुंदरता उनके कारण ही है।भरतपुर में बांके बिहारी मंदिर, कैला देवी मंदिर, लक्ष्मण मन्दिर आदि भव्य निर्माण कला के नमूने हैं।

★राज्य विस्तार:- भरतपुर धौलपुर समेत राजस्थान के कुछ हिस्से, आधा हरियाणा, वेस्ट यूपी, ब्रिज प्रदेश और दिल्ली के कुछ हिस्से उनके राज्य का हिस्सा था।

★कुछ महत्वपूर्ण बातें-

महाराजा सूरजमल जी को उनके धर्म हेतु किये गए कार्यों के लिए हिंदुआ सूरज व हिन्दू ह्रदय सम्राट के नाम से जाना जाता है।

एक तत्कालीन मुस्लिम यात्री ने उन्हें भारत का अंतिम हिन्दू सम्राट लिखा है।

उनके राज्य में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध था बताते हैं कि उनके खौफ से अवध के नवाब ने भी गौहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था।

उनके राज्य में ऊंची आवाज में अजान देने पर प्रतिबंध था। उन्होने बहुत से धर्मपरिवर्तित हिन्दुओ को वापिस हिन्दू बनाया था। दलितों को भी पूरा सम्मान दिया था उनका खजांची दलित चर्मकार जाति से था।

जब भी देश के किसी भी हिस्से पर किसी विदेशी आक्रांता ने आक्रमण किया तो उन्होंने दिल खोलकर उससे पीड़ितों को शरण दी व उन्हें सुरक्षा दी।

उन्होने हमेशा गौ, ब्राह्मण, अबला, मन्दिर और साधु संतों की रक्षा की। दूर दूर से बहुत से साधु व विद्वान और कलाप्रेमी उनके राज्य में आते थे और फलते फूलते थे।

वे दोनों हाथों से तलवार चलाने में माहिर थे, उन्हें धनुष बाण भाला बन्दूक तोप आदि सब अस्त्र शस्त्रों का ज्ञान था।

उनकी एक लाखा तोप तो इतनी शक्तिशाली थी कि वह भरतपुर से ही आगरा के लाल किले पर निशाना साधने में सक्षम थी।

महाराज सूरजमल जी श्रीकृष्ण भगवान, लक्ष्मण और हनुमान जी बहुत बड़े भक्त थे। उनके किले पर भगवा कपिध्वज लहराता था।
उन्होंने दिल्ली को आजाद करवाने के लिए  दो बार आक्रमण किये व दिल्ली को जीत लिया। ज्यादातर हिस्सो पर कब्जा कर लिया था परंतु अंत में कुछ गद्दारो के कारण उन्हें सन्धि करनी पड़ी,हालांकि सन्धि उनकी शर्तो पर ही हुई। दूसरी बार उन्हें धोखे से पीछे से गोली चलाकर मार दिया था।

उनकी मृत्यु के बाद भी कई दिनों तक मुगलो को विसवास न हुआ यह सबूत मिलने पर भी खौफ से उन्होंने कई दिनों तक इस बात को छुपाए रखा था।

उनका लोहागढ़ किला देश का एकमात्र अजेय किला है जिसे अफगान मुगल रुहेले कोई नहीं जीत पाया। उनके बेटे रणजीत सिंह के कार्यकाल में आंग्रेजो ने 13 बार इस किले पर आक्रमण किया परन्तु अंग्रेजो को हर बार मुंह की खानी पड़ी।

वे जब भी कोई मुगल अफगान रुहेला आदि कोई युद्ध में उनके आगे #नतमस्तक होता था तो वे उसके आगे ये #शर्ते अवश्य रखते थे कि- =वह किसी भी हिन्दू मन्दिर को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, =#गौहत्या न करेगा न होने देगा, =न ही किसी का #धर्मपरिवर्तन करवाएगा, =किसी भी साधु संत अबला व गरीब को तंग नहीं करेगा, =#पीपल के पेड़ को कभी नहीं काटेगा।

★महाराजा सूरजमल देश के ऐसे एकमात्र राजा थे जिन्होंने मुगलो से दिल्ली को आजाद करवाने के लिए दो बार आक्रमण किये और मुगलो के बुरी तरह से  छक्के छुड़ाए।

★ अब्दाली जब 1757 में मथुरा वृन्दावन लुटने आया और यमुना का पानी लोगो के खून से लाल कर दिया था तो उससे लोहा लेने वाले वे एकमात्र राजा थे और उसे धर्मनगरी से निकालकर ही दम लिया था।

इसके अलावा भी महाराजा सूरजमल जी की अनेको विरताएँ हैं जिन्हें किसी एक किताब या एक पोस्ट में समेटे जाना असम्भव है।

तभी तो कहा जाता है कि
नहीं सही जाटनी ने व्यर्थ प्रसव की पीर
जन्मा उसके गर्भ से सूरजमल सा वीर

जिसने बार बार दिल्ली में घुसकर मुगलों को फोड़ा था,
जिसके खौफ से अब्दाली ने मथुरा वृन्दावन छोड़ा था,

जिसके कारण हिंदुआ ध्वज शान से लहराता था,
वो बदन सिंह का देवकीनन्दन महाराजा सूरजमल कहलाता था,

जिसके भालों की नौकों से सलावत खां घबराया था
होकर पराजित दुष्ट ने हिन्दुओ के आगे शीश नवाया था

आगरा के लाल किले पर जिसने भगवा फहराया था
ताजमहल की कब्रो पर जिसने घोड़ा बन्धवाया था

पठान रुहेला अफगान जिसके नाम से ही घबराता था
वो बदन सिंह का देवकी नन्दन महाराजा सूरजमल कहलाता था।

उषा मस्जिद को जिसने फिर से मन्दिर बनवाया था
मथुरा वृन्दावन के घाटों को फिर से जिसने सजवाया था

बगरू के महलों में जिसकी धाक गूंजती थी
विजयश्री जिसके रण में सदा चरण चूमती थी

दिल्ली का वजीर भी जिसके आगे नतमस्तक रहता था
वो बदन सिंह का देवकी नन्दन महाराजा सूरजमल कहलाता था।

आतंक भरे मेवात ने पहली बार सांस चैन की ली थी
भारतभूमि ने अब बहुत ज्यादती सहन कर ली थी

जिसके भालों के वार से असद खां दर्द से कहराता था
जिसके शासन में अलीगढ़ शहर रामगढ़ कहलाता था।

क्षत्रेपन की शान था वो,रण केसरिया हो जाता था
वो बदन सिंह का देवकीनन्दन महाराजा सूरजमल कहलाता था

जिसका लोहागढ़ सदा अजेय रहा शान से इतराने को
कितने ही किले महल बने है ऐश्वर्य उनका बतलाने को

न जाने उसने रणभूमि में कितनो को धूल चटाई थी
उत्तर भारत में फिर से सनातन की धाक जमाई थी

राम कृष्णवंशी यौद्धा था वो बृजराज कहलाता था
वो बदन सिंह का देवकी नन्दन महाराजा सूरजमल कहलाता था।

वह अबला, गौ, ब्राह्मण-संतो का ही तो रक्षक था
उसका भाला धर्मविरोधी दुष्टों का ही तो भक्षक था

मुसीबत में जो फंसा हुआ उसकी छाया में ही तो आता था
उसकी शरण में आया हुआ तो ठूंठ भी हरा हो जाता था

जिसके कारण हिंदुआ ध्वज शान से लहराता था
वो बदन सिंह का देवकीनन्दन महाराजा सूरजमल कहलाता था।
हिंदुआ सूरज sketch
हिंदुआ सूरज महाराजा सूरजमल

महाराजा सूरजमल सिंहासन पर
हिदू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल

Brave warrior Jat
अजेय महायौद्धा महाराजा सूरजमल

Descendant of krishana
ब्रजराज महाराजा सूरजमल

उत्तर भारत का भगवान
उत्तर भारत का भगवान महाराजा सूरजमल

जय हिन्दू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल जी की।

Tuesday 2 April 2019

जानिए: जाटों को महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है?

क्यों कहा जाता है क्षत्रिय वीर जाटों को महाक्षत्रीय


खासकर चुनिए व वामपंथी, अंग्रेजो के गुलाम जरूर पढ़ें



देव संहिता में जाट वीरों को महाक्षत्रीय लिखा गया है।इसे भले ही पौराणिक कहानी कहा जाता हो लेकिन इसमें ऐतिहासिक तथ्यों की ओर जो इशारा किया गया है उससे नकारा नहीं जा सकता। इसके अलावा अन्य गर्न्थो के बारे में आपको बताता हूँ-

कुमापालचरित- राजा कुमारपाल पृथ्वीराज चौहान की दादी का भाई था। उसकी श्रीकुमारपाल चरित में 36 क्षत्रीय कुलों का वर्णन हैं। उसमें एकमात्र सम्पूर्ण जाट जाति को ही क्षत्रिय लिखा गया है।अन्य 35 वंश/गौत्र हैं जाती नहीं।और ये सब गौत्र भी जाटो में है।और कुछ अन्य जातियों में भी हैं।इससे यह स्पष्ट है कि जाट महाक्षत्रीय हैं।


पृथ्वीराज रासो- पृथ्वीराज रासो ग्रन्थ में भी 36 कुलों का वर्णन हैं जिसमें एकमात्र सम्पूर्ण जाट जाति को ही क्षत्रिय लिखा गया है अन्य 35 वंश है।

Jat Kshatriya Kumarpal Charit
जाट क्षत्रिय(पृथ्वीराज रासो,कुमारपाल चरित)

#गुजरात_की_प्राचीन_हस्तलिखित_पुस्तकें- इन हस्तलिखित पुस्तको में भी 36 कुलों में जाट जाति का वर्णन किया गया है।

#कर्नल_टॉड- राजपूत जाती पर लिखने वाले इतिहासकार कर्नल टॉड ने भी 36 संशोधित क्षत्रीय कुलों का वर्णन किया है जिसमें जाट जाति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है।

और जहाँ भी जिन 36 कुलों का जिक्र किया गया है वे सारे कुल जाट जाति में है।
राजपूत इतिहासकार Varna
जाट क्षत्रिय(ठाकुर नेकीराम राजपूत की पुस्तक,कर्नल टॉड)

वामपंथियो व अंग्रेजो ने इत्तिहास को तोड़ मरोड़ कर प्रचारित किया है। और कुछ इतिहासकार शायद इन तथ्यों तक साधनों की कमी के कारण नहीं पहुंच पाए होंगे।
परन्तु इत्तिहास छुपाए नहीं छुपता।विधर्मियो व दुश्मनों की लाख चालों के बाद भी जाटो का स्वर्णिम इत्तिहास व शौर्य एवं सोशल स्टेटस इस बात की गवाही देता रहा है कि जाट सभी क्षत्रियो में सर्वश्रेष्ठ हैं।

राम कृष्ण के वंश हैं हम महादेव के अंश हैं हम

शीश कटे पर झुके नहीं,धड़ लड़ी पर रुके नहीं

देश धर्म की खातिर जान की बाजी लगा देंगे।
या तो खुद मिट जाएंगे या दुश्मन को मिटा देंगे।।

तभी तो कहा गया है - महावीर महाबली महाक्षत्रीय जाट

जय सूरजमल,जय भवानी

Thursday 10 January 2019

धर्मपरिवर्तन करके मुस्लिम बने हुए हिंन्दुओ को वापिस हिन्दू बनाते थे चौधरी छोटूराम

चौधरी छोटूराम एवं शुद्धि आन्दोलन*

*#निर्वाण_दिवस 9 जनवरी पर विशेष:-*

दीनबंधु चौधरी छोटूराम जैसा किसान हितैषी आज तक नहीं हुआ। चौधरी साहब ने अपना जीवन किसानों के हित के लिए जिया। किसान चाहे किसी भी मजहब या जाति का रहा हो, उनके लिए वह अपना था। उन्होंने अपने प्रेरणास्रोत ऋषि दयानंद के वाक्य ‘किसान राजाओं का राजा होता है।’ को चरितार्थ कर के दिखाया व अंग्रेजो की गलत नीतियों के कारण खस्ताहाल हुए पंजाब के किसान को के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। चौधरी छोटूराम राजनीति में मजहब घुसाने के सख्त खिलाफ थे। वे राजनीति को आर्थिक आधार पर करने की वकालत करते थे। वे मजहब के आधार पर राजनीति करने वाले दलों के कट्टर विरोधी थे, जिस कारण कुछ सांप्रदायिक लोगों ने उन्हें धर्म विरोधी कहना शुरू कर दिया था ताकि कुछ धार्मिक सहानुभूति बटोर कर चौधरी साहब को राजनीति में हराया जा सके। पर जनता जानती थी कि चौधरी साहब सनातन वैदिक हिन्दू धर्म के प्रबल शुभचिंतक हैं। अतः उनकी न चलने दी।

*#वैदिक सिद्धान्तों के अनुयायीः-*

    आज भी कुछ लोग इस बात पर यकीन रखते हैं कि छोटू राम जी धर्म आदि से दूर ही रहते थे, जबकि सत्य तो यह है कि वे केवल राजनीति में धर्म घुसाने के विरोधी थे। व्यक्तिगत जीवन में वे बड़े धार्मिक थे-आचरण में भी व संगठनात्मक रूप से भी। वैदिक सिद्धांतों में उनका पूरा विश्वास था। मांस-मदिरा, फिजूल-खर्च (सिनेमा-सांग आदि पर) व नशों के सख्त विरोद्दी थे। गौ दुग्ध को प्राथमिकता देते थे व यज्ञ आदि के भी समर्थक थे। आर्यसमाज के सिद्धांत, इकबाल का साहित्य व योगीराज श्रीकृष्ण की शिक्षाएं उनके लिए प्रेरणा स्रोत थे।क
        1 मार्च 1942 को रोहतक के जाट स्कूल में भाषण में उन्होंने स्वयं कहा था कि- ‘मैं अपने जीवन का एक रहस्य खोल दँू। जिस मार्ग पर चलना मैं अपना कर्तव्य कर्म मानता हूं, उस मार्ग का दृढ़ता पूर्वक अनुसरण करने में मुझे मुख्यतया उस दैवी विचार से शक्ति और प्रेरणा मिलती रही है जिसको यहाँ रोहतक से थोड़ी ही दूर कुरुक्षेत्र में 5000 साल पहले भगवान कृष्ण ने प्रकट किया था।’ख

*#शुद्धि_आंदोलन के प्रबल समर्थक:-*

  चौधरी छोटूराम ‘घर-वापसी’ के बहुत बड़े समर्थक थे। अपने मुखपत्र ‘जाट गजट’ अखबार में कई लेख इस मुद्दे पर लिखते रहते थे। मुसलमानों को पुनः वैदिक धर्म में लाते थे। जाट गजट 5 दिसंबर 1925 पेज नंबर 4 में चौधरी छोटूराम ने ‘एंब्रेस योर फाॅलन ब्रदर्स’ नाम से लेख लिखा था। जिसका अर्थ था भटके हुए भाइयों को वापिस राह पर लाना। इसमें हर जाति के धर्म परिवर्तित मुसलमान को पुनः सनातन वैदिक धर्मी बनाने के लिए कई जाट पंचायतों में रेजोल्यूशन पास करवाए। 12 नवंबर 1925 को पुष्कर की जाट महारैली में भरतपुर जाटनरेश विजेंद्र की अध्यक्षता में मुसलमानों की घर वापसी करवाने व उनको अपनाने का रिजोल्यूशन चौधरी छोटूराम ने पास करवाया जिसके बाद पूरे भारत में हर जाति के हिन्दू जो मुसलमान बन चुके थे उन्हें वापिस हिन्दू बनाने की आर्य समाजी मुहिम को फिर से बल मिला। चौधरी साहब से प्रेरित जाट महासभाओं ने भी शुद्धि आंदोलन तीव्र गति से चलाया। चौधरी साहब व कुछ अन्य आर्य लीडरों ने मिलकर एक शुद्धि कमेटी की भी स्थापना की, जिसके प्रधान चौधरी घासीराम आर्य बने वहीं ज्वाइंट सेक्रेट्री चौधरी छोटूराम बने।
जाट क्षत्रीय महासभाओं का उपयोग वे हर जाति के लोगो के लिए करते थे और अपने किसान हितेषी आंदोलनों व धर्म कार्यो में इनकी शक्ति का बहुत फायदा उठाते थे।

    इधर मुसलमानों ने भी तबलीग आंदोलन चलाया हुआ था, जिस पर छोटूराम के विचार थे कि हमें भी (वैदिक धर्मियों को) शुद्धि आंदोलन तेज रफ्तार से चलाना चाहिए ताकि इन तबलीग जैसे इस्लामिक मतान्तरण के खतरों से बचा जा सके। क्या कोई गैर धर्म-प्रेमी ऐसी बात कह सकता है?

*#दलितों की घर वापसीः-*

    सन 1932 में रोहतक के कुछ हिंदू दलित भाइयों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया। इस बात की सूचना लगते ही चौधरी छोटूराम आर्य लाहौर से रोहतक पहुंचे। उन दलितों की पुनः सनातन वैदिक धर्म में वापसी करवाई व दलितों को धर्म न छोड़ने के लिए प्रेरित किया। यह घर वापसी रोहतक रेलवे रोड़ के किसी मन्दिर में हुई थी। प्रसिद्ध इतिहासकार कैप्टन दलीपसिंह अहलावत उस शुद्धि कार्यक्रम में मौजूद थे। उन्होंने इसका पूरा ब्यौरा अपनी पुस्तक ‘जाट वीरों का इतिहास’ के दसवें अध्याय में पेज नंबर 929-30 पर दिया है। कौन है? जो इस सत्य को झुठला सके! कौन है, जो अब भी चैधरी छोटूराम आर्य के धर्म रक्षक होने पर विश्वास नहीं करेगा? ऐ मेरे भाइयो! कब तक सच को झुठलाओगे? सत्यमेव जयते।

*#धर्म_रक्षकः-*

    एक आर्यसमाजी ही अपने धर्म का कट्टर और गैर सांप्रदायिक रह सकता है। दयानन्द से लेकर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, चैधरी चरणसिंह आर्य, चौधरी छोटूराम आर्य इसके साक्षात् उदाहरण हैं। ये सभी महापुरुष हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक व अपने वैदिक धर्म के पक्के थे। पाकिस्तान बनने की संभावनाएँ पंजाब में फैलने से उनको पंजाब के हिंदुओं की चिंता होने लगी थी। चौधरी साहब कहते थे कि अगर पाकिस्तान किसी तरह बन भी गया तो पंजाब के मुस्लिम बहुल इलाकों के हिंदू सिखों को बचाने व हक दिलाने का कर्त्तव्य उनका है। एक बार अंबाला डिवीजन को मेरठ डिवीजन में मिलाने के प्रस्ताव का उन्होंने शक्ति से विरोध किया था, क्योंकि इससे अंबाला डिवीजन (हरियाणा) जो कि हिंदू बहुल है, पंजाब से अलग हो जाता व बाकी पंजाब फिर मुस्लिम राज जैसा रह जाता, जहाँ पर अल्पसंख्यक हिंदुओं की बुरी हालात होती।

*#हिंदुइज्मः-*

    हिंदू हित के लिए उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था कि In any matter related to Hinduism, if anyone will attempt to Devour the Hindus,  I would not allow him to do so before I was myself devoured first....

अर्थात् - हिंदुत्व से जुड़े किसी भी मुद्दे पर मुझे हिंदू धर्म की वफादारी के अलावा कुछ नहीं चाहिए। अगर कोई हिंदुत्व को खत्म करने की कोशिश करेगा तो मैं जब तक खुद नहीं मिट जाऊं तब तक हिंदुत्व खत्म नहीं होने दूंगा। भरी सभा में मुस्लिम लीडरों के बीच निडरतापूर्वक ऐसी बातें स्वामी स्वतंत्रतानंद जी का शिष्य ही कह सकता है। जब नेताजी सुभाष बोस के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज आगे बढ़ रही थी, तब छोटूराम ने ही अपने गुरु स्वामी स्वतंत्रानंद जी व पण्डित जगदेव सिंह सिद्धांती आदि को हरियाणा में फौजियों को बगावत की तैयारी करने और बोस से मिल जाने के लिए भेजा था।

*#हरियाणवियों का बाबा दयानंदः-*

    सोनीपत में जमींदार लीग की बड़ी रैली चल रही थी। पंजाब के बड़े मुसलमान व सिख नेता वहाँ पधारे थे। एक सिख नेता ने अपने भाषण में किसानों की बात से हटकर हरियाणवियों को सिख बनने का न्योता दे डाला। जगदेव सिंह सिद्धांती व अन्य आर्य विद्वानों के कुछ कहने से पहले ही चौधरी छोटूराम आए व कहा कि किसान रैली में किसान हित की ही बात करो। रही गुरु की बात- तो हरियाणवियों का बाबा (गुरु) तो महृषि दयानंद सरस्वती ही है।आपको जो भी सन्त गुरु मानना है माने हम तो सनातनी ही रहेंगे।

*यह थी चौधरी छोटूराम की ऋषि-भक्ति।*

    मैंने चौधरी छोटूराम के धर्मपरायण होने की कुछ बातों का ही विवरण व तथ्य प्रस्तुत किए, ताकि आमजन को पता लगे कि चौधरी छोटूराम जी भी वैदिक धर्मी थे व अपने धर्म के शुभचिंतक थे। अपने को वे आर्यों का वंशज मानते थे। उम्मीद है कि आज का युवा वर्ग व नेतागण उनकी ही भाँति धर्म-रक्षक, गैर-सांप्रदायिक व किसान हितैषी बनने का प्रयास करेंगे।

संदर्भ:
(क) दीनबंधु का सफरनामा, लेखक: नारायण तेहलान पेज 185
(ख) दीनबंधु का सफरनामा पेज नंबर 178
(ग) देखें जाट गजट 30 नवंबर 1927
(घ) देखो जाट गजट 30 नवम्बर 1927
(ङ्)Sir Chhoturam : Life and times By Ch. Deepchand Verma पेज नंबर 145
(च) अतः वेदना: बिचारा कृषक अनुवादक व संपादक राजेंद्र जिज्ञासु, पेज नंबर 16 व चै0 छोटूराम ने ‘जाट गजट’ 28 अक्टूबर 1925 में भी एक लेख छापा था इसमें हरियाणवियों को सिखी की बजाय वैदिक धर्म में रहने को कहा गया था। काॅलेज की मैगजीन में सन 1901 में लिखा लेख।

साभार लेखक गुरप्रीत चहल जी॥

Friday 31 August 2018

सिर कटने के बाद भी दुष्टों को धूल चटाने वाले धर्मयौद्धा

सिर कटे पर झुके नहीं धड़ लड़ी पर रुके नहीं

मुस्लिमो के हिंन्दुओ पर अत्याचार, मुगलों की सजाएं
शीश कटने के बाद भी धड़ लड़ती रही

आज हम आपको बताने जा रहे हैं भारत की एक क्षत्रिय वीर जाट जाति के बारे में जो सिर कटने के बाद भी अपने सनातन वैदिक हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये लड़ते रहे।
इन वीरो ने धर्म हेतु अनेकों शीश दान कर दिए थे। तो सुनिए अपने पूर्वजों की कुछ वीर गाथाएं

1.हिन्दू वीर बिग्गाजी जाखड़- बिग्गाजी महाराज सिर कटने के बाद भी गौरक्षा के लिए लड़ते रहे थे।और गउओ को सुरक्षित पहुंचाकर अपने प्राण त्यागे थे।इनके अनेकों मन्दिर है लोजदेवता के रूप में पूजे जाते हैं।


2.हिन्दू वीर कुशाल सिंह दहिया- जब सिख गुरु तेग बहादुर सिंह का सिर कलम कर दिया गया था तब हिन्दू जाट वीर कुशाल सिंह दहिया और गुरु साहब की शक्ल मिलती थी इसलिए उन्होंने अपना सिर काटकर गुरु के सिर की जगह रख दिया था ताकि मुगलो को धोखा देकर गुरु के सिर को ले जाकर उनका अंतिम संस्कार कर सके।

फिर गुरु का सिर मुगलों के चंगुल से भाई जैता सिंह लेकर आये थे। हरियाणा के cm मनोहरलाल खट्टर जी ने इनकी प्रतिमा लगवाई है।

3.बाबा दीप सिंह- बाबा दीप सिंह सिख संधू गौत्री जाट थे।वे सिर धड़ से अलग होने पर भी लड़ते रहे थे।और आज उनके नाम पर गुरुद्वारा भी है। 


4.हिन्दू वीर तेजू सिंवर और 5. वीर रातू सिंवर- ये दोनों भाई अपनी बहन की रक्षा खातिर लंगड़खां व उसकी मुस्लिम सेना से अकेले लड़े थे सिर कटने के बाद भी लड़ते रहे व मुल्लो को भगाकर ही अंतिम सांस ली। इन्हें भी सिंवर वंश के कुलदेव के रूप में पूजा जाता है।


6.हिन्दू वीर रघुराम पालियाल- गौरक्षा की खातिर अंतिम सांस तक सिर कटने के बाद भी लड़ते रहे।120 मुल्लो को मार गिराया व गौमाता की रक्षा की। इनका भी इनकी स्थली कंटिया खींवसर में मन्दिर है।


7.हिन्दू वीर बख्ता बाबा- बख्ता बाबा सिर कटने के बाद भी गौरक्षा हेतु लड़े व बलिदान दिया। ये ढेरू गौत्री जाट थे।इनका मन्दिर है पूजा जाता है।


8.भाई तारु सिंह- जकारिया खान ने इन्हें इस्लाम अपनाने पर दबाव डाला।जब इन्होंने मना कर दिया तो जकरिया खान ने इनके केश समेत इनकी खोपड़ी उखड़वा दी थी।ये संधू गौत्री सिख जाट थे।


9.हिन्दू वीर गौकुला सिंह- औरँगेजेब के खिलाफ आवाज उठाने वाला पहले यौद्धा थे। इनके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिए गए लेकिन इन्होंने अपना धर्म नहीं छोड़ा।


10.हिन्दू वीर कान्हा रावत- औरँगेजेब के अत्याचारो के खिलाफ लड़े। इन्हे जिंदा धरती में दफना दिया गया परन्तु अपना हिन्दू धर्म नहीं त्यागा।


11.हिन्दू वीर राजाराम सिंह- इन्होंने औरँगेजेब के खिलाफ लड़ाई लड़ी।अकबर की कब्र उखाड़कर उसकी अस्थियां जला दी थी।एक युद्ध धोखे से मारे गए। इनका सिर काटकर आगरा में टांग दिया गया था।ये सिनसिनवार गौत्री जाट थे।


12.हिन्दू वीर रामकी चाहर- ये राजाराम जी के साथ ही थे इनको बंदी बनाकर आगरा ले जाया गया अनेकों यातनाएं व सिर काटकर आगरा में टांग दिया गया।


13.हिन्दू वीर जोरावर सिंह- औरँगेजेब के खिलाफ लड़े। इनके शरीर के छोटे छोटे टुकड़े करके कुत्ते के सामने फेंक दिया गया था।ये सिनसिनवार गौत्री जाट थे।


14.हिन्दू वीर उदय सिंघा- ये वीर गौकुला के साथ ही थे। इनके शरीर के भी औरँगेजेब ने टुकड़े टुकड़े करवा दिए थे इस्लाम न स्वीकारने पर।


15.हिन्दू वीर सायरजी महाराज- गौरक्षा हेतु अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।नैन गौत्री जाट थे।इनके मन्दिर हैं व लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं।


इसीलिए ही तो कहा जाता है कि जाट मरा तब जानिए जब तेहरवीं होज्या।सके अलावा भी हमारे इत्तिहास में अनेकों किस्से मिल जाएंगे। शर्म आनी चाहिए उन लोगो को जो हमेशा नकारात्मक चीजे फैलाकर इस देशभक्त व धर्मभक्त कौम को बदनाम करते हैं। उन्हें ये कतई नहीं भूलना चाहिए कि जब रक्त पिपासु इस्लामी तलवारे हिंदुस्तान की तरफ बढ़ी तो इन्होंने अपनी छाती लड़ाकर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी।
और सभी हिन्दू भाइयों से प्रार्थना है कि वामपंथियो के लिखे इत्तिहास को पढ़कर आपस मे न लड़ें हमारे पूर्वज वीर थे वीर जो सिर कटवा लेते थे लेकिन झुकाते नहीं थे।जो अकेली धड़ से लड़ते रहते थे लेकिन रुकते नहीं थे।

हर हर महादेव।
जय सूरजमल जय भवानी।

Saturday 18 August 2018

महाराजा कंवरपाल सिंह की जीवनगाथा- कस्वांवती राज्य

कस्वांपद राज्य
आज ही के दिन 19 अगस्त 1068 को सिधमुख को अपनी राजधानी बनाई थी।

कस्वांवती राज्य
राजधानी-सिधमुख(चुरू)

सूर्यवँशी कंस्वा भगवान श्री राम के वंशज हैं।
कंसुपाल सिंह कस्वां
Maharaja Knwarpal Singh Kanwan

दयालदास, पाऊलेट, मुंशी सोहन लाल आदि इतिहासकारों ने कसवा जाटों के राज्य कस्वांजनपद के बारे में लिखा है कि कसवां जाटों का प्रमुख ठिकाना सीधमुख था और कसवां कंवारपाल यहां के राजा थे तथा 400 गाँवों पर उनकी सत्ता थी तथा सिधमुख राजधानी थी।
महाराजा कंवरपाल कंस्वा धर्मनिष्ठ व वीर यौद्धा थे।

महाराजा कंवरपाल(कंसुपाल) सिंह कंस्वा अपनी 5000 सेना के साथ तालछापर आए, जहाँ मोहिलों का राज था. कंवरपाल जी ने मोहिलों को हराकर छापर पर अधिकार कर लिया.

इसके बाद वह आसोज बदी 4 संवत 1125 मंगलवार (19 अगस्त 1068) को सीधमुख आये. वहां जाट राजा रणजीत जोहिया राज करते थे जिनके अधिकार में 125 गाँव थे. लड़ाई हुई जिसमें 125 जोहिया तथा कंस्वा के 70 लोग वीरगति को प्राप्त हुए. इस लड़ाई में कंवरपाल विजयी हुए. सीधमुख पर कंवरपाल का अधिकार हो गया और वहां पर भी अपने थाने स्थापित किए.

सीधमुख विजय के बाद महाराजा कंवरपाल सात्यूं (चुरू से 12 कोस उत्तर-पूर्व) आये, जहाँ चौहानों के सात भाई (सातू, सूरजमल, भोमानी, नरसी, तेजसी, कीरतसी और प्रतापसी) राज करते थे. कंसुपाल ने यहाँ उनसे लड़ाई की जिसमें सातों चौहान भाई मरे गए.
 फाल्गुन सुदी 2 शनिवार, संवत 1150, 18 फरवरी, 1094, के दिन कंवरपाल जी का सात्यूं पर कब्जा हो गया. फ़िर सात्यूं से कसवां लोग समय-समय पर आस-पास के भिन्न-भिन्न स्थानों पर फ़ैल गए और उनके अपने-अपने ठिकाने स्थापित किए.

महाराजा कंवरपाल कंस्वा जी के बाद क्रमशः राजा कोहला, राजा घणसूर, राजा महसूर, राजा मला, राजा थिरमल, राजा देवसी, राजा जयसी और राजा गोवल सीधमुख के शासक हुए. गोवल के 9 लडके थे- चोखा , जगा, मलक, महन, ऊहड, रणसी, भोजा और मंगल. इन्होने अलग अलग ठिकाने कायम किए जो इनके थाम्बे कहे जाते थे.

चोखा के अधिकार में 12 गाँव यथा दूधवा, बाड़की, घांघू, लाघड़िया, सिरसली, सिरसला, बिरमी, झाड़सर, भुरड़की इत्यादि.
बरगा के अधिकार में हड़ियाल, महणसर, गांगियासर, लुटू, ठेलासर, देपालसर, कारंगा, कालेराबास (चुरू का पुराना नाम) आदि ,
रणसी के अधिकार में जसरासर, दूधवामीठा, रिड़खला, सोमावासी, झारिया, आसलखेड़ी, गिनड़ी, पीथीसर, धीरासर, ढाढर, बूंटिया इत्यादि.
जगा के अधिकार में गोंगटिया, बीगराण, मठौड़ी, थालौड़ी, भैंरूसर, इन्दरपुरा, चलकोई आदि तथा
ऊहण के अधिकार में नोपरा, जिगासरी, सेवाटादा, मुनड़िया, रुकनसर आदि. इसी प्रकार अन्य थामों के नाम और गाँवों का वर्णन है. परवाना बही राज श्रीबिकानेर से भी ज्ञात होता है की चुरू के आसपास कसवां जाटों के अनेक गाँव रहे थे यथा चुरू (एक बास), खासोली, खारिया (दो बास), सरसला, पीथुवीसींसर, आसलखेड़ी, रिड़खला (तीन बास), बूंटिया, रामसरा, थालोड़ी, ढाढर, भामासी, बीनासर, बालरासर, भैंरुसर (एक बास), ढाढरिया (एक बास) धान्धू, आसलू, लाखाऊ, दूधवा, जसरासर, लाघड़िया, चलकोई आदि.
कंवरपाल जी के एक वंशज चोखा ने संवत 1485 माघ बदी 9 शुक्रवार (31 दिसम्बर 1428) को दूधवाखारा पर अधिकार कर लिया.

विक्रम की 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अन्य जाट राज्यों के साथ कसवां जाटों के राज्य को भी राठोडों ने अधिकृत कर लिया.क्योंकि यह जाट राज्य अगली पीढ़ी तक छोटे छोटे ठिकानों में बंट गया थे।व आपसी द्वेष के कारण एकजुट नहीं हो सके। ईसलिये सबने बिका जी के साथ सन्धि कर ली व उनके राज्य में शामिल हो गए।

ठाकुर देशराज जी लिखते हैं कि ईसा की चौथी सदी से पहले जांगल-प्रदेश में आबाद हुए थे। इनके अधिकार में लगभग चार सौ गांव थे। सीधमुख राजधानी थी। राठौरों से जिस समय युद्ध हुआ, उसय समय कंवरपाल नामी सरदार इनका राजा था। इस वंश के लोग धैर्य के साथ लड़ने में बहुत प्रसिद्ध थे। कहा जाता है दो हजार ऊंट और पांच सौ सवार इनके प्रतिक्षण शत्रु से मुकाबला करने के लिए तैयार रहते थे। यह कुल सेना राजधानी में तैयार न रहती थी। वे उत्तम कृषिकार और श्रेष्ठ सैनिक समझे जाते थे। राज उनका भरा-पूरा था। प्रजा पर कोई अत्याचार न था। सत्रहवीं शताब्दी में इनका भी राज राठौंरों द्वारा अपहरण कर लिया गया।

इनका राज्य बहुत खुशहाल था। प्रमुख ठिकानों के सरदारों का चुनाव होता था। राज्य में किसानों,मजदूरों,धर्म प्रचारकों को विशेष संरक्षण प्रदान था। यहां कंस्वा जाटो का राज किसी न किसी रूप में 1068 से 16वी शताब्दि के पूर्वार्ध(1530/1550) तक रहा।

लेकिन कितने दुःख की बात है कि आज इनके वंशज ही इन्हें भुले बैठे हैं।एक आध बुजुर्ग आदमी को ही वह स्वर्णिम काल धुंधला धुंधला याद है। सिधमुख में इनकी प्रतिमा लगनी चाहिए ताकि आने वाली पीढियां इन्हें याद रख सके। और उससे भी बड़ी बात यह है कि यहां कि यहां चूरू से हर बार कस्वां ही mp बनते हैं लेकिन फिर भी कोई स्टेचू नहीं।उस समय जांगलपर्देश(बीकानेर से चुरु तक) लगभग 7 जाट राज्य थे।उनमें से किसी की भी प्रतिमा उनकी राजधानी में भी नहीं है।

जय महाराजा कंवरपाल सिंह। जय जय श्री राम।
चौधरी जयदीप सिंह नैन

Thursday 9 August 2018

1857 के अमर शहीद यौद्धा बाबा शाहमल तोमर

1857 के अमर क्रांतिकारी शहीद बाबा शाहमल तोमर

शहीद क्रांतिकारी शाहमल जाट
अमर शहीद क्रांतिकारी बाबा शाहमल

बाबा शाहमल सिंह तोमर बागपत जिले में #बिजरौल गांव के एक साधारण परन्तु आजादी के दिवाने क्रांतिकारी #किसान थे।उनका जन्म 17 फरवरी 1797 के दिन एक साधारण #जाट_क्षत्री परिवार में हुआ थाIइनके पिता का नाम चौधरी अमीचन्द तोमर था व माता धनवंती देवी थी। वे मेरठ और दिल्ली समेत आसपास के इलाके में बेहद लोकप्रिय थे। मेरठ जिले के समस्त पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में अंग्रेजों के लिए भारी खतरा उत्पन्न करने वाले बाबा शाहमल ऐसे ही क्रांतिदूत थे। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए इस महान व्यक्ति ने लम्बे अरसे तक #अंग्रेजों को चैन से नहीं सोने दिया था।

अंग्रेज हकुमत से पहले यहाँ #बेगम समरू राज्य करती थी. बेगम के राजस्व मंत्री ने यहाँ के किसानों के साथ बड़ा अन्याय किया. यह क्षेत्र १८३६ में अंग्रेजों के #अधीन आ गया. अंग्रेज अदिकारी प्लाउड ने जमीन का #बंदोबस्त करते समय किसानों के साथ हुए अत्याचार को कुछ सुधारा परन्तु #मालगुजारी देना बढा दिया. पैदावार अच्छी थी. किसान मेहनती थे सो बढ़ी हुई मालगुजारी भी देकर खेती करते रहे थे। खेती के बंदोबस्त और बढ़ी मालगुजारी से किसानों में भारी असंतोष था जिसने १८५७ की क्रांति के समय आग में घी का काम किया.

शाहमल का गाँव बिजरौल काफी बड़ा गाँव था . 1857 की क्रान्ति के समय इस गाँव में दो पट्टियाँ थी. उस समय शाहमल एक पट्टी का नेतृत्व करते थे.

इसी बीच बाबा शाहमल ने आजादी के लिए क्रांति का बिगुल बज दिया।शाहमल की क्रान्ति प्रारंभ में स्थानीय स्तर की थी परन्तु समय पाकर विस्तार पकड़ती गई. आस-पास के लम्बरदार विशेष तौर पर बडौत के लम्बरदार शौन सिंह और बुध सिंह और जौहरी, जफर्वाद और जोट के लम्बरदार बदन और गुलाम भी विद्रोही सेना में अपनी-अपनी जगह पर आ जमे. शाहमल के मुख्य सिपहसलार बगुता और सज्जा थे और जाटों के दो बड़े गाँव बाबली और बडौत अपनी जनसँख्या और रसद की तादाद के सहारे शाहमल के केंद्र बन गए.

१० मई को मेरठ से शुरू विद्रोह की लपटें इलाके में फ़ैल गई. शाहमल ने जाटो के साथ जहानपुर कर अन्य किसान गुर्जर आदि को भी साथ लेकर बडौत तहसील पर चढाई करदी. उन्होंने तहसील के खजाने को लूट कर उसकी अमानत को बरबाद कर दिया. बंजारा सौदागरों की लूट से खेती की उपज की कमी को पूरा कर लिया. मई और जून में आस पास के गांवों में उनकी धाक जम गई. फिर मेरठ से छूटे हुये #कैदियों ने उनकी की फौज को और बढा दिया. उनके प्रभुत्व और नेतृत्व को देख कर दिल्ली दरबार में उसे सूबेदारी दी.

12 व 13 मई 1857 को बाबा शाहमल ने सर्वप्रथम साथियों समेत अंग्रेज #समर्थित बंजारा व्यापारियों पर आक्रमण कर काफी संपत्ति कब्जे में ले ली और बड़ौत तहसील और पुलिस चौकी पर हमला बोल की तोड़फोड़ व लूटपाट की। दिल्ली के क्रांतिकारियों को उन्होंने बड़ी मदद की। क्रांति के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की भावना ने जल्दी ही उनको #क्रांतिवीरों का सूबेदार बना दिया। बाबा शाहमल तलवारबाजी में निपुण व बहुत बड़े करतबबाज थे।
शाहमल ने बिलोचपुरा के ए व्यक्ति को अपना दूत बनाकर दिल्ली भेजा ताकि अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए मदद व सैनिक मिल सकें। बागपत के आस पास के सभी क्रान्तिकारियो से शाहमल से अच्छे सम्बन्ध थे। इन सभी ने शाहमल को बादशाह के सामने पेश करते हुए कहा कि वह क्रांतिकारियो के लिए बहुत सहायक हो सकते है और ऐसा ही हुआ शाहमल ने न केवल अंग्रेजों के संचार साधनों को ठप किया बल्कि अपने इलाके को दिल्ली के क्रांतिवीरों के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल दिया।

अपनी बढ़ती #फौज की ताकत से उन्होंने बागपत के नजदीक जमुना पर बने पुल को नष्ट कर दिया. उनकी इन सफलताओं से उन्हें 84 गांवों का आधिपत्य मिल गया. उसे आज तक देश खाप की #चौरासी कह कर पुकारा जाता है. वह एक स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में संगठित कर लिया गया और इस प्रकार वह जमुना के बाएं किनारे का #राजा बन बैठा, जिससे कि दिल्ली की उभरती फौजों को रसद जाना कतई बंद हो गया और मेरठ के क्रांतिकारियों को मदद पहुंचती रही. इस प्रकार वह एक छोटे किसान से बड़े क्षेत्र के अधिपति बन गए.

कुछ अंग्रेजों जिनमें हैवेट, फारेस्ट ग्राम्हीर, वॉटसन कोर्रेट, गफ और थॉमस प्रमुख थे को यूरोपियन फ्रासू जो बेगम समरू का दरबारी कवि भी था, ने अपने गांव #हरचंदपुर में शरण दे दी। इसका पता चलते ही शाहमल ने #निरपत सिंह व #लाजराम जाट के साथ #फ्रासू के हाथ पैर बांधकर काफी पिटाई की और बतौर सजा उसके घर को लूट लिया। बनाली के महाजन ने काफी रुपया देकर उसकी जान बचायी। मेरठ से दिल्ली जाते हुए डनलप, विलियम्स और ट्रम्बल ने भी फ्रासू की रक्षा की। फ्रासू को उसके पड़ौस के गांव सुन्हैड़ा के लोगों ने बताया कि इस्माइल, रामभाई और जासूदी के नेतृत्व में अनेक गांव अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गए है। शाहमल के प्रयत्‍‌नों से हर वर्ग से सब भारतीय एक साथ मिलकर लड़े और हरचंदपुर, ननवा काजिम, नानूहन, सरखलान, बिजरौल, जौहड़ी, बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बुढ़ैरा, पोईस, गुराना, नंगला, गुलाब बड़ौली, बलि बनाली (निम्बाली), बागू, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, बड़ौत, औसख, नादिर असलत और असलत खर्मास गांव के लोगों ने उनके नेतृत्व में संगठित होकर क्रांति का #बिगुल बजाया।

कुछ बेदखल हुये जमींदारों ने जब शाहमल का साथ छोड़कर अंग्रेज अफसर डनलप की फौज का साथ दिया तो शाहमल ने ३०० सिपाही लेकर बसौड़ गाँव पर कब्जा कर लिया. जब अंग्रेजी फौज ने गाँव का घेरा डाला तो शाहमल उससे पहले गाँव छोड़ चुका था. #अंग्रेज_फौज ने बचे सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया और ८००० मन गेहूं जब्त कर लिया. इलाके में शाहमल के दबदबे का इस बात से पता लगता है कि अंग्रेजों को इस अनाज को मोल लेने के लिए किसान नहीं मिले और न ही किसी व्यापारी ने बोली बोली. गांव वालों को सेना ने बाहर निकाल दिया।

 शाहमल ने यमुना नहर पर सिंचाई #विभाग के बंगले को मुख्यालय बना लिया था और अपनी गुप्तचर सेना कायम कर ली थी। हमले की पूर्व सूचना मिलने पर एक बार उन्होंने 129 अंग्रेजी सैनिकों की हालत खराब कर दी थी।

इलियट ने १८३० में लिखा है कि पगड़ी बांधने की प्रथा व्यक्ति को आदर देने की प्रथा ही नहीं थी, बल्कि उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की संज्ञा भी थी. शाहमल ने इस प्रथा का पूरा उपयोग किया. शाहमल बसौड़ गाँव से भाग कर निकलने के बाद वह गांवों में गया और करीब ५० गावों की नई फौज बनाकर मैदान में उतर पड़ा.

दिल्ली दरबार और शाहमल की आपस में उल्लेखित संधि थी. अंग्रेजों ने समझ लिया कि दिल्ली की मुग़ल सता को बर्बाद करना है तो शाहमल की शक्ति को दुरुस्त करना आवश्यक है. उन्होंने शाहमल को जिन्दा या मुर्दा उसका सर काटकर लाने वाले के लिए १०००० रुपये #इनाम घोषित किया.

#डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था, को शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा. इसने अपनी डायरी में लिखा है -

"चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों का जिसे '#खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना नामुमकिन था."
एक सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि

एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो गया था और जिसने #राजा_की_पदवी धारण कर ली थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
छपरा गांव के त्यागियों, बसोद के जादूगर और बिचपुरी के गूर्जरों ने भी शाहमल के नेतृत्व में क्रांति में पूरी शिरकत की। अम्हेड़ा के किसानों ने बड़ौत व बागपत की लूट व एक महत्वपूर्ण पुल को नष्ट करने में हिस्सा लिया। सिसरौली के जाटों ने शाहमल के सहयोगी सूरजमल की मदद की जबकि दाढ़ी वाले सिख ने क्रांतिकारी किसानों का नेतृत्व किया।

जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा डनलप #भाग खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने घमासान #युद्ध हुआ.

डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग रक्षक के साथ लड़ रहा था, #फिरंगियों के बीच घिर गया. उसने अपनी तलवार के वो #करतब दिखाए कि फिरंगी दंग रह गए. तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा. इस दौर में उसकी पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई. जिसका फायदा उठाकर एक फिरंगी सवार ने उसे घोड़े से गिरा दिया. अंग्रेज अफसर पारकर, जो शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-टुकडे करवा दिए।यह 18 जुलाई का दिन था और 21 जुलाई उनका सर काट कर एक भाले के ऊपर टंगवा दिया.

फिरंगियों के लिए यह सबसे बड़ी विजय पताका थी. डनलप ने अपने कागजात पर लिखा है कि अंग्रेजों के खाखी रिशाले के एक भाले पर अंग्रेजी झंडा था और दूसरे भाले पर शाहमल का सर टांगकर पूरे इलाके में परेड करवाई गई. चौरासी गांवों के 'देश' की किसान सेना ने फिर भी हार नहीं मानी. और शाहमल के सर को वापिस लेने के लिए सूरज मल और भगता स्थान-स्थान पर फिरंगियों पर हमला करते रहे. इसमें सब वर्गों के किसानों ने बढ़-चढ़ कर साथ दिया. शाहमल के गाँव सालों तक युद्ध चलाते रहे.

21 जुलाई 1857 को तार द्वारा अंग्रेज उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई कि मेरठ से आयी फौजों के विरुद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने 6000 साथियों सहित मारा गया। शाहमल का #सिर_काट लिया गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी लगाई गई।

पर इस शहादत ने क्रांति को और मजबूत किया तथा 23 अगस्त 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल जाट ने बड़ौत क्षेत्र में पुन: जंग की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों ने इसे कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा जिसने पांचली बुजुर्ग, नंगला और फुपरा में कार्रवाई कर क्रांतिकारियों का दमन कर दिया। लिज्जामल को बंदी बना कर साथियों जिनकी संख्या 32 बताई जाती है, को #फांसी दे दी गई।

शाहमल मैदान में काम आया, परन्तु उसकी जगाई #क्रांति के बीज बडौत के आस पास प्रस्फुटित होते रहे. बिजरौल गाँव में शाहमल का एक छोटा सा #स्मारक बना है जो गाँव को उसकी याद दिलाता रहता है.

आज इन अमर क्रान्तिकारियो देशभक्तों के विचारों व प्रयास को फिर से युवा पीढ़ी तक पहुंचाने की जरूरत है।

महाराजा सूरजमल का द्वितीय दिल्ली अभियान-बलिदान गाथा

महाराजा सूरजमल का द्वितीय दिल्ली अभियान व बलिदान गाथा-1763

महाराजा सूरजमल
हिन्दू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल

हिन्दू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल की नजरों में दिल्ली सदा खटकती रहती थी।वे दिल्ली को मुगलों से मुक्त करवाकर गुलामी का कलंक धोने की इच्छा रखते थे। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने 1753 में भी दिल्ली पर आक्रमण किया था व ज्यादातर जीत ली थी। पर कुछ गद्दारों के कारण उन्हें सन्धि करनी पड़ी थी।

बात 1763 की है दिल्ली के मुगल दरबार मे एक ब्राह्मण काम करता था।उसकी बेटी चन्दनकौर बहुत सुंदर व धर्म परायण थी। बादशाह ने एक दिन उसे देख लिया और उससे शादी करने की इच्छा जाहिर की।लेकिन धर्मपरायण चन्दनकौर ने शादी से मना कर दिया तो बादशाह ने उसे जेल में डाल दिया।वहां एक मेहतरानी ने चन्दनकौर को सलाह दी के पूरे हिंदुस्तान में सिर्फ एक ही हिन्दू सम्राट है जो अबलाओं व धर्म की रक्षा करने के लिए दिल्ली से भी टक्कर ले सकता है।और वह है भरतपुर में बैठे जटवाड़े के शासक महाराजा सूरजमल।
किसी तरह से चन्दनकौर ने खत लिखकर अपनी माता के माध्यम से अपना दुःख महाराजा सूरजमल के दरबार तक पहुंचाया।
महाराजा सूरजमल ने जब खत पढ़ा और उसकी माता की व्यथा सुनी तो उनकी आंखों में आंसू आ गए।परन्तु दिल्ली से टक्कर लेने का मतलब था पूरे हिंदुस्तान से टक्कर लेना।हर मुसलिम से व हर सेक्युलर हिन्दू से टक्कर लेना।और इसके लिए सालो मेहनत की आवश्यकता होती है।परन्तु उन्होंने कुछ भी न सोचा और अपना  वीर सैनिक हरचंद गुर्जर को दिल्ली भेजा।

वहां जाकर हरचंद ने महाराजा सूरजमल का संदेश नजीब को सुनाया व चन्दनकौर को रिहा करने का आदेश सुनाया।मगर नजीब ने कुछ न सोचा उस मूर्ख ने हरचंद के साथ साथ महाराजा सूरजमल को भी अपमानित करने के लिए कहा कि जा उस सूरजमल को कह देना की अपनी जाटनी भी साथ ले आएगा।महारानी का अपमान सुनते ही वीर हरचंद ने अपनी तलवार निकाली और कहा कि नजीब अगर महाराज दिल्ली आए तो गिड़गिड़ायेगा तू हम अपनी माता व अपने राज्य का अपमान कभी नही सहेंगे।यह कहते हुए उसने नजीब पर हमला बोल दिया लेकिन पूरा दरबार ही नजीब का था।चारों तरफ से सैनिकों ने हमला कर दिया।जिसमें कई मुल्लो को मारकर हरचंद शहीद हो गया।

यह खबर महाराजा सूरजमल तक पहुंची तो वे आग बबूला हो उठे।और अपनी सेना को दिल्ली की ओर मुख करने का आदेश दिया।चूंकि महाराजा सूरजमल दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी पहले से ही कर रहे थे परंतु सही समय नहीं आया था।इस घटना के होने के कारण उन्होंने पहले ही आक्रमण करने की ठान ली।
तैयारियां पूरी नहीं थी उनके मंत्री रूपाराम कटारा ने उन्हें समझाया भी।मगर महाराजा ने कहा कि एक दुष्ट एक हिन्दू बेटी को कैद किये हुए है  और हम सबको ललकार रहा है।हमारे दूत भेजे हुए वीर सैनिक को भी उसने नहीं बख्शा।उनके मंत्री ने कुलपुरोहित से भी कहलवाया कि यह समय ग्रहदशा के अनुसार ठीक नहीं है।परन्तु महाराजा सूरजमल ने कहा कि वीर जब चले तभी समय है।विजय या वीरगति।

आखिरकार दिल्ली पर आक्रमण कर दिया गया।हिंडन नदी तक कब्जा करके उसे पार कर लिया गया।गाजियाबाद पर भी महाराजा सूरजमल की प्रतापी सेना ने कब्जा कर लिया।जोरदार तोड़फोड़ की।नजीब का कलेजा हिल गया।उसने तत्काल महाराजा सूरजमल को खत लिखा व उनकी शर्त स्वीकार कर ली और चन्दनकौर को सुरक्षित भेज दिया।और युद्ध विराम करने का आग्रह किया।लेकिन महाराजा सूरजमल को तो वीर हरचंद के बलिदान का भी प्रतिशोध लेना था।उन्होंने उत्तर दिया कि डर क्यों रहे हो नजीब बाहर निकलो मैं इतनी दूर आ गया तुम दो कदम नहीं आ सकते क्या?आजा दम है तो छूकर दिखा चरणों की धूल को ही।महान जाट क्षत्राणी महारानी किशोरी देवी भी मेरे साथ है।

फिर दोबारा से युद्ध शुरू हो गया जाट सेना ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए।नजीब के हालात पतले हो गए थे।ज्यादातर दिल्ली पर भगवा पभुत्व कायम हो गया था।

फिर एक दिन युद्ध चल रहा था तो दोपहर को ही महाराजा सूरजमल को महारानी की चिंता हुई।वे अकेले ही अचानक से उनसे मिलने के लिए शिविर में आ गए।उनको देखकर वे युद्ध देखने लगे गये। उनका पुत्र नाहर सिंह व सेनापति मंशाराम जाट वीरता से लड़ रहे थे।उनका ध्यान उसी तरफ था।तभी एक मुगलों के लुटेरे सरदार ने उन्हें निहत्थे खड़े देख लिए।महाराजा सूरजमल का ध्यान नहीं गया और वे नदी किनारे कुछ सैनिको के साथ टहलने लगे।और युद्ध क्षेत्र से थोड़े दूर निकल गए। झाड़ियों में छिपते छिपते मुगल सैनिक भी वहां आ गए। उन्होंने अचानक से हमला कर दिया।सब वीरता से लड़े थे।परन्तु पीछे से झाड़ियों में से दो तीन गोली मुगल सैनिक की उनके शरीर में लगी।इसके बाद मुगल सैनिकों ने उन पर तलवारों से प्रहार किया।महाराजा सूरजमल शहीद हो गए।पीठ पीछे वार करके धोखे से व युद्ध नियमो का उल्लंघन करके भी मुगल सैनिक डरे हुए थे व उन्हें विस्वास नहीं हो रहा था कि सूरजमल का मरना भी सम्भव है।महाराजा सूरजमल का कोई अंग उनके परिवार को नहीं मिला।सिर्फ एक दांत से ही समाधि बनाई गई थी।

जाट सेना अगले दिन तक अनुशासन में लड़ती रही क्योंकि उन तक एक दिन तक कोई खबर नहीं पहुंची थी।युद्ध अब भी पूर्ण रुप से हिन्दू वीरो के ही हक में था।लेकिन जैसे ही यह खबर उनके बेटे नाहर सिंह तक पहुंची तो वे दुखी हो गए व सेना को वापिस भरतपुर चलने का आदेश दिया और महाराजा सूरजमल की तलाश करने को कहा क्योंकि कई दिनों तक किसी को भी इस अनहोनी पर विस्वास नहीं हुआ था।इस तरह महाराजा सूरजमल अपने जीवन काल में युद्ध के मैदान में कभी भी पराजित नहीं हुए।

उस समय उनके वीर पुत्र महाराजा जवाहर सिंह फरुखनगर में थे व नवविजित किलो की रक्षा कर रहे थे। जब यह खबर उन तक पहुंची तो वे प्रतिशोध की ज्वाला में जल उठे।
आगे आपको बताया जाएगा कि उन्होंने क्या प्रतिज्ञा ली।व किस तरह एक बार फिर दिल्ली पर चढ़ाई की।

जय हिन्दू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल की।

जय सूरजमल। जय भवानी।

भक्त शिरोमणि माता कर्माबाई का जीवन परिचय

भक्त शिरोमणि माता करमा बाई का जीवन परिचय
पुण्यतिथि

Karma Bai Jat
भक्त शिरोमणी माता कर्माबाई


जन्म : 

करमा बाई का जन्म कालवा(आनन्दपुर) गाँव के क्षत्रिय जाट जमीदार जीवनराम #डूडी के घर माता रतनी देवी की कोख से भादवा बदी एकं अर्थात 20 अगस्त 1615 ई. को हुआ।उसके जन्म पर मूसला धार बरसात हुई थी। जिससे गाँव में खुशियाँ फ़ैल गयी थी। करमा बाई पैदा होते ही हंसी थी जो एक चमत्कार था। एक बूढी दाई ने तो कहा कि यह बालिका ईश्वर का अवतार है.

 कर्मा बाई के पिता चौधरी जीवणराम डूडी ईश्वर में बहुत आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। उनका नित-नियम था कि जब तक भगवान कृष्ण की मूर्ति को जलपान नहीं कराते तब तक स्वयं भी जलपान नहीं ग्रहण करते थे। उन्होने ईश्वर प्राप्ति के लिए अनेक तीर्थों का भ्रमण किया था।

करमा बाई का विवाह: 

करमा बाई का विवाह सोऊ गोत्र में गाँव मोरेड़ वाया बिदियाद (नागौर) कर दिया गया था।परन्तु थोड़े ही समय में वह विधवा हो गयी और आजीवन बाल विधवा के रूप में ही अपना जीवन भगवान की भक्ति में व्यतीत किया।

मनसुख रणवा के अनुसार करमा बाई का विवाह छोटी उम्र में ही अलवर जिले के गढ़ी मामोड गाँव में साहू गोत्र के लिखमा राम के साथ कर दिया। कुछ ही समय बाद पति की मृत्यु हो गयी। करम बाई उस समय कालवा में ही थी। उनका अंतिम संस्कार करने के लिए वह ससुराल गाढ़ी मामोड चली गयी। वह घर और खेत का सारा काम करती थी। अतिथियों की खूब आवभगत करती थी। कालवा ही नहीं आस-पड़ौस के गाँवों में उसकी प्रसंसा होने लगी।

करमा बाई का भगवान को खिचड़ी खिलाना : 

इनके पिता भगवान के बड़े भक्त थे और उनको भोग लगा कर ही भोजन ग्रहण करते थे। एक दिन इनके पिता तीर्थ-यात्रा पर गए और भगवान की पूजा अर्चना व भोग लगाने की जिम्मेदारी बाई कर्मा को सौंप गए। दूसरे दिन भोली करमाँ ने खिचड़ी बनाकर भगवान् को भोग लगाया तो भगवान ने ग्रहण नहीं किया। तब करमा बाई ने सोचा कि शायद परदा न होने के कारण भगवान भोग नहीं लगा रहे हैं। उसने अपने का परदा किया और मूंह दूसरी तरफ फेर लिया, ताकि भगवान् भोग लगा सके। फिर भी नतीजा कुछ न निकला। उसने भगवान से फिर कहा, "भगवान् आप भोजन नहीं करते तो मैं भी नहीं खाऊँगी।" करमा उस दिन भूखी रह गयी। उसने दूसरे दिन फिर खिचड़ी बनाई और परदा करके भगवान के फिर से भोग लगाया। दूसरे दिन भी कोई नतीजा नहीं निकला। तब उसने कहा कि यदि आप नहीं खायेंगे तो मैं न तो खिचड़ी खाऊँगी और न भोग लगाऊंगी। भूखी रहकर प्राण त्याग दूँगी। इस तरह तीन दिन बीत गए। तीसरे दिन भगवान् ने करमाँ को स्वप्न में कहा , "उठ ! जल्दी से खिचड़ी बना, मुझे बड़ी भूख लगी है। "

करमा बाई हडबड़ा कर उठी, जल्दी से खिचड़ी पकाई और परदा कर के भगवान के भोग लगाया। थोड़ी देर में देखा कि भगवान सारी खिचड़ी खा गए हैं। करमा बाई का खुसी का ठिकाना न रहा। अब वह नित्य प्रति भगवान को खिचडी का भोग लगाने लगी और बालरूप में भगवान आकर उसकी खिचडी खाने लगे। यह करमा बाई के भक्ति की चरम सीमा थी।

करमा बाई के घर भगवान द्वारा स्वयं आकर भोजन करने की बात दिन दूनी रात चौगुनी चारों तरफ फ़ैल गयी।नाभादास कृत भक्तमाल में करमा बाई के सम्बन्ध में इस प्रसंग का उल्लेख मिलता है। चारण ब्रह्मदास दादूपंथी विरचित 'भगत माल' में भी इसका उल्लेख इस प्रकार है-

जिमिया खीच करमां घिरे ज्वार का
बडम धिन द्वारिका तणा वासी
काफी दिनों बाद जब करमा बाई के पिता तीर्थ यात्रा पूरी करके वापिस लौटे तो उन्हें यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि प्रभु रोज करमा बाई की खिचड़ी खाने आते हैं। वह भी अपनी आँखों से भगवान के दर्शन कर धन्य हुए।

जगन्नाथपुरी धाम में भगवान को सर्वप्रथम माता कर्मा का भोग

करमा बाई की प्रसिद्धी: इस तरह करमा बाई के प्रेम में बंधे भगवान जगन्नाथ को भी प्रतिदिन सुबह खिचड़ी खाने जाना पड़ता था। अत: प्रभु जगन्नाथ के पण्डितों ने इस समस्या के समाधान के लिए राजभोग से पहले करमा बाई के नाम से खिचड़े का भोग प्रतिदिन #जगन्नाथपुरी के मंदिर में लगाने लगे ताकि भगवान को जाना न पड़े। आज भी जगन्नाथपुरी के मंदिर में करमा बाई की प्रीत का यह ज्वलंत उदहारण देखने को मिलता है जहाँ भगवान के मंदिर में करमा बाई का भी मंदिर है और उसके खीचड़े का भोग प्रतिदिन भगवान को लगता है। परचीकार ने लिखा है -

करमां के घर जीमता, जो न पतीजो लोक।
देखो जगन्नाथ में, अज हूँ भोग।
मलुक को टुकरो बंटे, वटे कबीर की पाण।
करमांबाई रो खीचड़ो, भोग लगे भगवान।।
करमांबाई की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। करमांबाई ने अपनी पूरी जिंदगी भगवान की भक्ति में व्यतीत कर दी। करमांबाई की भक्ति का परिणाम है कि आज भी राजस्थान में उनकी वात्सल्य भक्ति के किस्से लोगों की जुबान पर हैं। महिलायें कृष्ण मंदिरों में करमांबाई के खीचड़ले से सम्बंधित भजन भक्ति भाव से गाती हैं। इस तरह करमांबाई अपनी अनूठी वात्सल्य भक्ति के कारण इस संसार में प्रसिद्धि प्राप्त कर संवत 1691 (25.7.1634 ई.) में एक दिन परमात्मा में विलीन हो गयी। वह भगवान में आस्था रखने वालों के लिए एक सन्देश छोड़ गयी कि बाह्य शुद्धता के स्थान पर आत्मा की शुद्धता तथा भगवान से सच्ची प्रीत से प्रभु की प्राप्ति सम्भव है।

करमांबाई अपने भोलेपन की भक्ति के बल वह आज भी ऐसी औरतों के लिए उदाहरण बनी हुई है जो आचार-विचार के बिना भगवान में सच्ची प्रीति रखती हैं। करमांबाई वास्तव में सच्ची प्रीति का प्रतीक थी, जैसे कि परचीकार ने लिखा है -

करमां कुल में जाटणी, नरतन को अवतार।
प्रेम प्रीत की पूतली, सिरजी सिरजणहार।।
करमांबाई मंदिर

करमांबाई मंदिर कालवा
 आनन्दपुर यानी कालवा गांव में आज भी उनका मन्दिर है और दूर दूर से भक्त उनकी पूजा करने आते हैं।माता कर्मा देवी का हर साल मेला भी लगता है।

करमा बाई का लोक गीत

थाली भर कर लाई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी।
जीमो म्हारा श्यामधणी, जीमावे बेटी जाट की।।
बाबो म्हारो गाँव गयो है, कुण जाणै कद आवैलो।
बाबा कै भरोसे सावरा, भूखो ही रह ज्यावैलो।।
आज जीमावूं तन खीचड़ो, काल राबड़ी छाछ की। जीमो म्हारा.....
बार बार मंदिर ने जड़ती, बार-बार पट खोलती।
जीमै कैयां कोनी सांवरा, करड़ी करड़ी बोलती।।
तू जीमै जद मैं जीमू, मानूं न कोई लाट की ।। जीमो म्हारा.....
परदो भूल गयी रे सांवरिया, परदो फेर लगायो जी।
धाबलिया कै ओले, श्याम खीचड़ो खायोजी।।
भोला भक्ता सूं सांवरा, अतरी काँई आंट जी। जीमो म्हारा.....
भक्त हो तो करमा जैसी, सांवरियो घर आयोजी।।
भाई लोहाकर, हरख-हरख जस गायोजी।
सांचो प्रेम प्रभु में हो तो, मूर्ती बोलै काठ की ।। जीमो म्हारा.....

जय माता कर्मा देवी की
जय श्रीकृष्ण भगवान की।

17 बूचड़खाने तोड़ने वाले विश्व के सबसे बड़े गौरक्षक की जीवनी

वीर हरफूल सिंह-सबसे बड़ा गौरक्षक

गौरक्षक वीर हरफूल
गौरक्षक वीर हरफूल सिंह

जन्म-

वीर हरफूल का जन्म 1892 ई० में भिवानी जिले के लोहारू तहसील के गांव बारवास में एक जाट क्षत्रिय परिवार में हुआ था।उनके पिता एक किसान थे।
बारवास गांव के इन्द्रायण पाने में उनके पिता चौधरी चतरू राम सिंह रहते थे।उनके दादा का नाम चौधरी किताराम सिंह था। 1899 में हरफूल के पिताजी की प्लेग के कारण मृत्यु हो गयी। इसी बीच ऊनका परिवार जुलानी(जींद) गांव में आ गया।यहीं के नाम से उन्हें वीर हरफूल जाट जुलानी वाला कहा जाता है।

हरफूल की माता जी को उनके देवर रत्ना का लत्ता उढा दिया गया।
हरफूल अपने मामा के यहां तोशाम के पास संडवा(भिवानी) गांव में चले गये।
जब वे वापिस आये तो उनके चाचा के लड़कों ने उसे प्रोपर्टी में शेयर देने से मना कर दिया।जिस पर बहुत झगड़ा हुआ।और हरफूल को झूठी गवाही देकर पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।और हरफूल पर थानेदार ने बहुत अत्याचार किये।
उनकी माता ने हरफूल का पक्ष लिया मगर उनकी एक न चली बाद में उनकी देखभाल भी बन्द हो गयी।

सेना में 10 साल

उसके बाद हरफूल सेना में भर्ती हो गए।उन्होंने 10 साल सेना में काम किया।उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भी भाग लिया। उस दौरान ब्रिटिश आर्मी के किसी अफसर के बच्चों व औरत को घेर लिया।तब हरफूल ने बड़ी वीरता दिखलाई व बच्चों की रक्षा की।अकेले ही दुश्मनों को मार भगाया।

फिर हरफूल ने सेना छोड़ दी।जब सेना छोड़ी तो उस अफसर ने उन्हें गिफ्ट मांगने को कहा गया तो उन्होंने फोल्डिंग गन मांगी।फिर वह बंदूक अफसर ने उन्हें दी।

थानेदार व अपने परिवार से बदला-
उसके बाद हरफूल ने सबसे पहले आते ही टोहाना के उस थानेदार को ठोक दिया जिसने उसे झूठा पकड़ा व टॉर्चर किया था।फिर उसने अपने परिवार से जमीन में हिस्सा मांगा तो चौधरी कुरड़ाराम जी के अलावा किसी ने सपोर्ट न किया और भला बुरा कहा।वे उनकी माता की मृत्यु के भी जिम्मेदार थे तो बाकियो को हरफूल ने ठोक दिया।
फिर हरफूल बागी हो गया उसने अपना बाद का जीवन गौरक्षा व गरीबों की सहायता में बिताया।
Harful Jat Julani Wala
Veer Harful Singh

गौरक्षा- सवा शेर

पहला हत्था तोड़ने का किस्सा-23July1930
टोहाना में मुस्लिम राँघड़ो का एक गाय काटने का एक कसाईखाना था।वहां की 52 गांवों की नैन खाप ने इसका कई बार विरोध किया।कई बार हमला भी किया जिसमें नैन खाप के कई नौजवान शहीद हुए व कुछ कसाइ भी मारे गए।लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई।क्योंकि ब्रिटिश सरकार मुस्लिमों के साथ थी।और खाप के पास हथियार भी नहीं थे।
तब नैन खाप ने वीर हरफूल को बुलाया व अपनी समस्या सुनाई।हिन्दू वीर हरफूल भी गौहत्या की बात सुनकर लाल पीले हो गए और फिर नैन खाप के लिए हथियारों का प्रबंध किया।हरफूल ने युक्ति बनाकर दिमाग से काम लिया। उन्होंने एक औरत का रूप धरकर कसाईखाने के मुस्लिम सैनिको और कसाइयों का ध्यान बांट दिया।फिर नौजवान अंदर घुस गए उसके बाद हरफूल ने ऐसी तबाही मचाई के बड़े बड़े कसाई उनके नाम से ही कांपने लगे।उन्होंने कसाइयों पर कोई रहम नहीं खाया।सैंकआईड़ो मुस्लिम राँघड़ो को मौत के घाट उतार दिया।और गऊओ को मुक्त करवाया।अंग्रेजों के समय बूचड़खाने तोड़ने की यह प्रथम घटना थी।

इस महान साहसिक कार्य के लिए नैन खाप ने उन्हें सवा शेर की उपाधि दी व पगड़ी भेंट की।
गौरक्षक दिवस 27 जुलाई
विश्व गौरक्षक दिवस 27 July

उसके बाद तो हरफूल ने ऐसी कोई जगह नहीं छोड़ी जहां उन्हें पता चला कि कसाईखाना है वहीं जाकर धावा बोल देते थे।
उन्होंने जींद,नरवाना,गौहाना,रोहतक आदि में 17 गौहत्थे तोड़े।ऊनका नाम पूरे उत्तर भारत में फैल गया।कसाई उनके नाम से ही थर्राने लगे ।उनके आने की खबर सुनकर ही कसाई सब छोड़कर भाग जाते थे। मुसलमान और अंग्रेजों का क्साइवाड़े का धंधा चौपट हो गया।
इसलिए अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी। मगर हरफूल कभी हाथ न आये।कोई अग्रेजो को उनका पता बताने को तैयार नहीं हुआ।

गरीबों का मसीहा-

वीर हरफूल उस समय चलती फिरती कोर्ट के नाम से भी मशहूर थे।जहाँ भी गरीब या औरत के साथ अन्याय होता था वे वहीं उसे न्याय दिलाने पहुंच जाते थे।उनके न्याय के भी बहुत से किस्से प्रचलित हैं।

हरफूल की गिरफ्तारी व बलिदान


अंग्रेजों ने हरफूल के ऊपर इनाम रख दिया और उन्हें पकड़ने की कवायद शुरू कर दी।

इसलिए हरफूल अपनी एक ब्राह्मण धर्म बहन के पास झुंझनु(रजस्थान) के पंचेरी कलां पहुंच गए। इस ब्राह्मण बहन की शादी भी हरफूल ने ही करवाई थी।
यहां का एक ठाकुर भी उनका दोस्त था।
वह इनाम के लालच में आ गया व उसने अंग्रेजों के हाथों अपना जमीर बेचकर दोस्त व धर्म से गद्दारी की।

अंग्रेजों ने हरफूल को सोते हुए गिरफ्तार कर लिया।कुछ दिन जींद जेल में रखा लेकिन उन्हें छुड़वाने के लिये हिन्दुओ ने जेल में सुरंग बनाकर सेंध लगाने की कोशिश की और विद्रोह कर दिया।सलिये अंग्रेजों ने उन्हें फिरोजपुर जेल में चुपके से ट्रांसफर कर दिया।
गौरक्षक हिन्दू वीर हरफूल जुलानी वाला

बाद में 27 जुलाई 1936 को चुपके से पंजाब की फिरोजपुर जेल में अंग्रेजों ने उन्हें रात को फांसी दे दी। उन्होंने विद्रोह के डर से इस बात को लोगो के सामने स्पष्ट नहीं किया। व उनके पार्थिव शरीर को भी हिन्दुओ को नहीं दिया गया। उनके शरीर को सतलुज नदी में बहा दिया गया।

इस तरह देश के सबसे बड़े गौरक्षक, गरीबो के मसीहा, उत्तर भारत के रॉबिनहुड कहे जाने वाले वीर हरफूल सिंह ने अपना सर्वस्व गौमाता की सेवा में कुर्बान कर दिया।

मगर कितने शर्म की बात है कि बहुत कम लोग आज उनके बारे में जानते हैं।कई गौरक्षक सन्गठन भी उनको याद नहीं करते। गौशालाओं में भी गौमाता के इस लाल की मूर्तियां नहीं है।

ऐसे महान गौरक्षक को मैं नमन करता हूँ।

जय हरफूल।जय गौमाता।
जय सूरजमल।जय भवानी।

गुड़गांव के शीतला माता मंदिर निर्माण कथा- हिन्दू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल

माता के आशीर्वाद से हिन्दू सम्राटों ने की बढ़ई की कन्या की रक्षा व मन्दिर निर्माण कथा

महाराजा जवाहर सिंह और महाराजा सूरजमल
शीतला माता मंदिर निर्माण कथा
महाराजा जवाहर सिंह और महाराजा सूरजमल

गुड़गांव का शीतला माता मंदिर बहुत प्रसिद्ध व भव्य मंदिर है यहां दूर दूर से श्रद्धालु माता के दर्शन करने आते हैं।महाभारत के समय गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी माता कृपी यहां सती हुई थी।

बात 1750 के आस पास की है।गुड़गांव के पास के गांव(हरियाणा) में एक गरीब बढई रहता था।उसकी एक बहुत सुंदर कन्या थी।उसकी सुंदरता का जिक्र दिल्ली के दरबारों तक भी पहुंच गया था।कहते हैं कि दिल्ली के मुस्लिम बादशाह ने अपने कुछ दूत भेजकर बढई को संदेश भिजवाया कि बादशाह वह अपनी बेटी को 10 दिन के अंदर अंदर दरबार में पहुंचा दे वरना ठीक नहीं रहेगा। बढ़ई बेचारा क्या करता वह रोने लगा।फरियाद लेकर खाप पंचायत के पास गया।पंचायत ने कहा कि बादशाह से लड़ने के लिए बहुत ज्यादा हथियार चाहिए जिसका प्रबंध फिलहाल हमारे पास नहीं है।
इसलिए फैसला हुआ कि वह महाराजा सूरजमल से प्रार्थना जरूर करें।धर्मप्रतापी महाराज उनकी जरूर मदद करेंगे।

बढई ने वैसा ही किया वे भरतपुर दरबार में पहुंचे।और अपनी व्यथा महाराज सूरजमल को सुनाई।महाराजा सूरजमल यह सुनकर क्रोधित हो उठे व तुरंत अपने वीर प्रतापी पुत्र महाराज जवाहर सिंह को बुलाया।और बढ़ई को कहा कि वह निश्चित होकर घर जाए आपकी बेटी हमारी बेटी है।और हम अपनी छत्रछाया में हिन्दुओ की पगड़ी पर कभी भी दाग नहीं लगने देंगे।

उसके बाद उन्होंने हिन्दू वीर शिरोमणि महाराजा जवाहर सिंह को बढई व उसकी कन्या की रक्षा हेतु भेजा।
महाराज जवाहर सिंह अपनी रुद्रांश जाट सेना के साथ चल पड़े।जब रास्ते में माता कृपी की मढ़ी आयी तो उन्होंने वहां माता से विजयश्री का आशीर्वाद मांगा व विजय के बाद ऊनका पक्का मन्दिर बनवाने की प्रतिज्ञा भी ली। कुछ लोगो का कहना है कि माता की मढ़ी के पास आकर महाराज के घोड़े रुक गए थे व आगे नहीं चले।तब ऊनका ध्यान मढ़ी की तरफ गया था।फिर आशीर्वाद प्राप्त किया।

फिर जवाहर सिंह बढ़ई के घर पहुंचे अगले दिन बादशाह के मुस्लिम सैनिक वहां आये तो जवाहर सिंह ने उन्हें बुरी तरह मारा और पिशाच बादशाह को संदेश भेजा कि यह हमारी बहन है आंख उठाकर भी देख लेना।यह तकती पर लिखकर मुस्लीक सैनिको के गले मे टांगकर उन्हें दिल्ली की तरफ भगा दिया।बादशाह ने भी शक्तिशाली महाराज सुरजमल से पंगा लेना ठीक न समझा और अपनी इच्छा त्याग दी।

इस प्रकार महाराजा जवाहर सिंह ने उस कन्या की रक्षा की व वापिस भरतपुर आकर महाराजा जवाहर सिंह ने माता शीतला(कृपी) के बारे में बताया।

 फिर महाराजा सूरजमल ने वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण किया और महाराज जवाहर सिंह ने स्वयं अपने कर कमलों से वहां सवा किलो सोने की मूर्ति स्थापित की।

एक बार फिर कईं सालों बाद किसी बादशाह ने वहां से मूर्ति हटवाकर तालाब में फिंकवा दी थी तो वहां के एक बहुत बड़े जमींदार दादा सिंघा कटारिया जाट ने उस मूर्ति को पुनः स्थापित किया था व अपना महल और बहुत सी जमीन मन्दिर के नाम कर दी थी।कहते हैं कि उस समय माता के भक्त सिंघा जाट के चरणों को छूने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी थी।आज भी दादा सिंघा के वंशज गुड़गांव में रहते हैं।यह मंदिर 500 गज से भी अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है।अब यह मन्दिर सरकार के अधीन है।
हिन्दू वीर शिरोमणि
Maharaja Jawahar Singh

माता शीतला की बहुत मान्यता है और उन्हें मऊ जनपद की कुलदेवी भी माना जाता है।बहुत दूर दूर से भक्त माता की पूजा करने के लिए इस मंदिर में आते हैं और यह मंदिर बहुत प्रसिद्ध है।

जय जवाहर जय बजरंगी।
जय सूरजमल जय भवानी।

जय शीतला माता की